गुरुवार, 27 मई 2010

ओ पथिक संभलकर जइयो उस देश ------------ अमित शर्मा

ओ पथिक संभलकर जइयो उस देश
महा ठग बैठ्यो है धार ग्वाल को भेष
टेढ़ी टेढ़ी चाल चले,अरु चितवन है टेढ़ी बाँकी 
टेढ़ी हाथ धारी टेढ़ी तान सुनावे बांसुरी बाँकी
तन कारो धार्यो अम्बर पीत,अरु गावे मधुर गीत
बातन बतरावे मधुर मधुर क्षण माहि बने मन मीत
सारो भेद खोल्यो मैं तेरे आगे,पहचान बतरायी है
अमित मन-चित हर लेत वो ऐसो ठग जग भरमाई है 
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कुंवर जी कान्हा के देश  जा रहे थे तो सोचा कि उन्हें वहाँ रहने वाले एक महाठग के बारे में सावधान कर दूँ , जो अपनी बाँकी चितवन से मन हर ले जाता है.

सोमवार, 24 मई 2010

कैसे बताये कैसे लुटे हम--------- अमित शर्मा

आप सभी ने वह कहानी तो पढ़ी होगी ना जिसमें ठग राजा से ऐसा कपडा बुनने कि बात कहता है कि यह कपडा मुर्ख  को दिखाई नहीं देगा और उसे ठग ले जाता है........................ शातिर ठग ने राजा से आकर कहा कि वह ऎसा कपडा बुन सकता है, जो सिर्फ समझदार  को दिखलाई देगा। ठग ने कपडा बुना, उससे वस्त्र बनाए और राजा को पहना दिए। राजा को कपडा दिखाई ही नहीं दिया, पर उसके दरबारियों ने एक स्वर में कहा कि वाह कपडा कितना लाजवाब है। आखिर नए वस्त्र पहने राजा का जुलूस निकला। राजा नंगा था, पर किसी का साहस नहीं कि राजा को वस्त्रहीन कहे। आखिर एक मासूम बच्चे ने चिल्ला कर कहा- अरे राजा तो नंगा है।

क्या आप को नहीं लगता कि ऐसे ठग और ऐसे राजा के भाई-बंधु हमारे आस-पास ही खूब मौजूद है .  आये  दिन अख़बारों में पढने को मिलता रहता है कि दुगने का लालच देकर कोई रूपये ठग ले जाता है तो कोई सोना चाँदी. 
अब लो एक मजेदार बात और घटी है जयपुर में कि कुछ ठग लोगों को एक ऐसा शीशा बेचने के नाम पर लाखों रुपयों कि चपत लगा गए, जिससे कपड़ों के अन्दर शरीर को भी देखा जा सकता है. 

अब बिचारे ठगी के शिकार लोक-लाज के मारे ना तो पुलिस में शिकायत करने जैसे और ना घरवालो को बताने जैसे. भापडे मुहँ छिपाकर रोने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे .ठग पहले तो दलालों के मार्फ़त पुरामहत्व कि चीजों के नाम पे ग्राहक ढूंढते थे फिर उन्हें इस शीशे का झांसा देकर, अग्रिम भुगतान लेकर गायब हो जाते थे. है ना कमाल के ठग और कमाल के ठगाने वाले.
अनपढ़ लोगों कि कौन कहे पढ़े लिखे लोग ही जब ऐसे झांसो में आ जाते है तो फिर भगवान् ही मालिक है!!!!!!!!!!!!!!!!

शनिवार, 22 मई 2010

आपको बच्चों का कौन सा रूप पसंद है. ---------------- अमित शर्मा


बच्चे ईश्वर का दिया खुबसूरत उपहार है. 




 संसार में ऐसा कौन निष्ठुर होगा जिसका मन बच्चों को देखकर ना खिल उठता होगा.

बच्चे जब इस दुनिया में आते है तो सारी दुश्चिंताओं से दूर अपने माता-पिता के सामर्थ्य के आसरे निश्चिन्त रहते है.



लेकिन कुछ माता पिता पता नहीं क्या सोच कर अपने बचों के साथ ऐसा सलूक कर बैठते है 







जब तक माता के जीवन को हानि ना हो और गर्भ-समापन के आलावा कोई दूसरा विकल्प ना रहे, तब तो कुछ समझ में आ सकता है. लेकिन अनचाहा गर्भ रह जाये अपनी वासना कि अन्धायी से, लड़के कि चाहत में पता लगे कि लड़की है तो ये तरीका अपनाया जाये . हद है हैवानियत कि. कोशिश कीजिये कि अपनी पहचान में कहीं ऐसा ना हो पाए.

शुक्रवार, 21 मई 2010

"अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं"

हमें कभी कभी अप्रत्याशित परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. ऐसी परिस्थितियाँ जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते सामने खडी हो जाती है. क्या कारण है ??
सबसे पहले तो समझने वाली बात यह है कि ईश्वरीय विधान में हमें ऐसा कुछ भी प्राप्त नहीं होता जिसके अधिकारी हम नहीं है .
कर्म सिद्धांत अकाट्य और सुनिश्चित है. संसार भर में सारे प्राणियों के जो सुख-दुःख, अच्छी-बुरी परिस्तिथि जो कुछ भी हम देख पाते है; वह हमारे ही पिछले कर्म का प्रतिसाद है. हमारा केवल यही एक जन्म नहीं है. हमारे साथ असंख्य पूर्वजन्मों के कर्म संस्कार संचित है .
लेकिन कुछ मान्यताएं बतलाती है कि सिर्फ यही एक जन्म है और मृत्यु के  बाद एक लम्बे इन्तजार के बाद न्याय का समय आएगा जिस दिन सारे प्राणियों का हिसाब किताब होगा. जबकि न्याय कि भावना और प्रत्यक्ष दिखने वाली स्थितियों में यह सिद्धांत टिक नहीं पाता है. अगर वर्तमान जन्म ही प्रथम और अंतिम है तो फिर सभी प्राणियों को एक साथ और एक ही परिस्थितियों में जन्म लेना चहिये था; जबकि हम देखते है कि ऐसा बिलकुल नहीं है .क्यों कोई शारीरिक रूप से अपंग जन्म लेता है, या हो जाता है, क्यों कोई परम धनि या परम फ़कीर होता है, अगर गर्भाशायी बालक भी किसी प्रकार दुःख प्राप्त कर रहा है तो सीधा  सीधा मतलब है कि उसके पूर्वजन्म के कर्म फलदायी हो रहे है, जन्म लेते ही कितने ही बच्चे भयंकर परिस्थितियों का सामना करते है, यह किस कारण से साफ़ है पिछले कर्मनुबंध से. नहीं तो कोई कारण नहीं है कि कोई भी प्राणी संसार में असमान  रूप से सुख-दुःख भोगे.
मेरी समझ में तो न्याय सिद्धांत तो इसी प्रकार घटित होता है कि संसार एक अनवरत और शाश्वत प्रक्रिया  है, सारा जीव समुदाय उसका अंग है और अपने कर्मानुसार जगत में फलोप्भोग करता है .जो कुछ भी घटित होता है उसके लिए हम किसी दूसरे को दोष नहीं दे सकते है. भले ही कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारी  परिस्थिति के लिए उत्तरदायी दिख रहा हो, पर वह हमारे सुख-दुःख का मूल कारण बिलकुल भी नहीं है.बल्कि अनेक जन्मों में हमारा अनेक जीवात्माओं से सम्बन्ध रहता है. उनके साथ हमारा ऋणानुबंध है, जिसे हमें समय अनुसार चुकता करना होता है. इस तरह प्रत्येक परिस्तिथि का मूल कारण हम  ही है. जब तक हमारे कर्म का लेखा अनुमति नहीं देगा, तब तक कोई हमें सुख-दुःख नहीं दे सकता. 
काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता /
निज कृत करम भोगु सब भ्राता // 

एक बार धृतराष्ट्र ने श्री कृष्ण से पूछा कि मैंने जीवन में ऐसा कोई भयंकर पाप नहीं किया, जिसके फलस्वरूप मेरे सौ पुत्र एक साथ मार गए. श्रीकृष्ण ने उसे दिव्य द्रष्ठी प्रदान कि . तब उन्होंने देखा कि पचास जन्म पहले वे एक बहेलिया थे और उन्होंने पेड़ पर बैठे पक्षियों को पकड़ने के लिए जलता हुआ जाल फेंका था, जिससे सौ पक्षी अंधे होकर जाल में गिरे और मार गए. पचास जन्मों तक संचित पुण्य कर्मों के कारण उन्हें इस कर्म का फल नहीं मिला, पर जब पुण्य कर्मों का प्रभाव ख़त्म हुआ तो उन्हें यह फल भोगना पड़ा. कर्मफल अकाट्य है,अचूक है, उसे भोगना ही पड़ता है -- "अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं"

यह बात भी पूरी तरह सही है कि भगवान् कि मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता. ईश्वर न किसी से राग करता है न किसी से द्वेष. वह तो केवल दया और न्याय करता है. छोटी बुद्धि के होने के कारण हम नहीं जान पाते कि हमारे लिए सही गलत क्या है. पर सर्वज्ञ होने के कारण ईश्वर जानता है कि हमारे हित में क्या है. उसके आगे हमारे सारे कर्मों का हिसाब है, इसलिए सबका समन्वय करते हुए जो युक्तियुक्त होता है,  वह वही करता है. 
इसलिए सभी अच्छे बुरे कर्मों  का ध्यान देते हुए हमें अपने जीवन में सज्जनता लाते हुए, दूसरों की भलाई के काम करने चहिये जिससे कि पिछले गलत कामों को भोगते  हुए हमसे कोई दूसरा गलत काम ना जो जाये जिसका फल फिर दुखदायी हो. 

रविवार, 9 मई 2010

"कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति" --------- अमित शर्मा

बच्चों ने माँ को गुलदस्ता देते हुए, मदर्स डे की शुभकामनाये दी.माँ ने मुस्कुराते हुए गुलदस्ता ले तो लिया, पर चेहरा कुछ और ही बयान कर रहा था. माँ अपने कामों में व्यस्त हो गयी; बच्चे समझ नहीं पाए क्या हुआ!!!!!!!!!!!!!!

भी  अचानक  बच्चो  के समझ  में  सब आया है 
हरदम  हँसतीं  माँ  का  चेहरा  क्यों  कुम्हलाया है 
 माँ  ने  हर  दिन   जिन  बच्चों  के नाम किया  था
उन  बच्चो ने सिर्फ  एक दिन  माँ  के  नाम  रखा था 
बचपन  से  पढ़ी  बात  आज  पूरी  समझ  में  है आती
क्यों कहते "कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति"



शनिवार, 8 मई 2010

चलिए कुछ ऐसी तरन्नुम गुनगुनायी जाये ----- अमित शर्मा

चलिए  कुछ  ऐसी  तरन्नुम गुनगुनायी जाये
दीवारे  भरम  की सारी  जड़ों से गिराई जाये
उकताहट  बहुत होती है  ज़माने  की गर्मी से
ठंडाई  मुहब्बत की  ज़माने को पिलाई  जाये

जगमगाते मस्जिद -ओ- मंदिर क्या रोशन करें
चलिए गफलत  के मारे किसी घर में उजाला करें
 खुद  ही इल्मे किताबत  क्या करते रहेंगे उम्रभर  
चलिए किसी  मुफलिस के बच्चों को पढाया जाये

छायाँ नहीं मिलती  कंही  सुकूँ की मुरझाए दरख़्त पुराने 
चलिए क्यारियां रोपें,  मुहब्बत बरसाएंगे जो होंगे सयाने
सूखता सा ही क्यों चला जा रहा है  दरिया ये मुहब्बत का 
देखना जरा "अमित" रोड़ा अटका न हो आपसी अदावत का

बुधवार, 5 मई 2010

आज फिर से रात भर आपकी याद आई ---- अमित शर्मा


आज  फिर से रात भर आपकी  याद आई
आज फिर से  रात भर हुई  नींद से रुसवाई  
तस्वीर जो देखी आपकी चली फिर से पुरवाई 
गुजरी हर एक बात  दौड़ी आँखों में भर आई  

जिन्दगी की धूप से जब कभी परेशां हुआ था
आप का ही  साया मैंने हमेंशा सर पे पाया था 
साये तो वैसे  अब भी  जिन्दगी में खूब मिले है
पर मिला ना अब तक आप सा हमसाया कोई है 

याद आती है अब भी बैठ काँधे पे घूमना आपके
घुमाता हूँ जब  बैठा काँधे पे पडपोते  को आपके
यादों  में ही आएंगे क्या अब  दिने  क़यामत तक
कहिये तो फिर आ चले "अमित" जरा बाज़ार तक





सोमवार, 3 मई 2010

पता नहीं क्या क्या कह जाते है लोग

पता नहीं क्या क्या  कह जाते है लोग
पता नहीं किस रौ में बह जाते है लोग
 
कोई आंखन देखी ना कोई कानन सुनी
ज्यादा बहुत देखा देखी ही कहते है लोग

मनचीती रबरबी,मनचाहा कहते है लोग
एक कहे तोड़ो बुतों को,कोई मस्जिद को
 
कहता कोई असल हमारा  इल्म है  देखो
कोई  कह जाते सब बकवास जला  फेंको

क्या सच में सिखलाता कोई रूहानी  ग्रन्थ
की यह अपना है और वोह पराये धर्म वाला
 
सोच "अमित" ,क्या यह ऐसे  ही  थे सच में
या फिर हमीं ने कर डाला सब गड़बड़झाला

 

रविवार, 2 मई 2010

ओ माँ क्या तुम झूंठ बोलती थी


ओ माँ क्या तुम झूंठ बोलती थी 
तुमने  कहा था दुनिया बड़ी प्यारी है 
कहा था यहाँ खिली प्रेम की क्यारी है 
पर मुझे तो हर बात दिखती न्यारी है 
हर और फैली नफरत और गद्दारी है 

ओ माँ क्या तुम झूठ बोलती थी 
तुमने कहा था प्रेम की नदी यहाँ बहती है 
मगर  देखा नदी इंसां के लहू की बहती है 
तुमने बताया था  कण-कण में भगवान् है 
लोग कहते  बुत में काबे में क्या नादान है 

ओ माँ क्या तुम झूंठ बोलती थी 
नहीं माँ मुझे विश्वास  नहीं होता इसका 
ओ दुनिया वालो   तुम  जवाब दो इसका
बतलादो मुझको  मेरी माँ सच कहती थी 
बिगाड़ी हमने बात वर्ना माँ सच कहती थी