रविवार, 12 सितंबर 2010

"करना" हमारे बस में है लेकिन "होना" हमारे बस में नहीं है . ----अमित शर्मा

तेरे मन कुछ और है , विधना के कुछ और

आप कितनी भी कोशिश कर लीजिये आपका सोचा सो फीसीदी यथारूप कभी नहीं घट सकता है. क्योंकि व्यक्ति की सोच इस समष्टि का सञ्चालन नहीं कर सकती है. समष्टि के सञ्चालन के अनुसार हर चेतना के आयाम निर्धारित है.
जो व्यवस्था इस विराट सञ्चालन की विधि निर्धारित कर रही है, वह हर जीव के त्रिविध कर्म और उनके त्रिविध फलों के अनुसार एक एक पल का घटनाक्रम निर्देशित कर रही है . हर पल आपके साथ जो घट रहा है वो इस विराट स्रष्टि के अनन्त जीवों के आपसी प्रारब्ध के आपसी जुड़ाव का चमत्कार है.
संसार एक अनवरत और शाश्वत प्रक्रिया  है, सारा जीव समुदाय उसका अंग है और अपने कर्मानुसार जगत में फलोप्भोग करता है .जो कुछ भी घटित होता है उसके लिए हम किसी दूसरे को दोष नहीं दे सकते है. भले ही कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारी  परिस्थिति के लिए उत्तरदायी दिख रहा हो, पर वह हमारे सुख-दुःख का मूल कारण बिलकुल भी नहीं है.बल्कि अनेक जन्मों में हमारा अनेक जीवात्माओं से सम्बन्ध रहता है. उनके साथ हमारा ऋणानुबंध है, जिसे हमें समय अनुसार चुकता करना होता है. इस तरह प्रत्येक परिस्तिथि का मूल कारण हम  ही है. जब तक हमारे कर्म का लेखा अनुमति नहीं देगा, तब तक कोई हमें सुख-दुःख नहीं दे सकता.
काफी दूर से एक गाडी चली आ  रही है और एक आदमी चल रहा है अचानक एक पॉइंट पर एक निश्चित टाइम पर दोनों टकरा जातें है. कोई बिल्डिंग बन रही है कोई पत्थर ऊपर से नीचे गिरा जब वह बस जमीन छूने ही वाला है की कोई ठीक उसके नीचे आगया.... हो गया काम तमाम.
यह सब कुछ शायद यूँ ही तो नहीं हो जाता है. कहीं ना कही अंतर-सम्बन्ध तो रहता ही है हर घटना में.


यह सब कुछ होना है और होकर ही रहेगा, क्योंकि कर्म सिद्धांत अटल अचूक है. लेकिन कर्म सिद्धांत सिर्फ "होनी" के घटने का ही तो नाम नहीं है, कर्म सिद्धांत का अभिन्न अंग "करना" क्योंकि बिना करें "कर्म" कैसे होगा कर्म के अभाव में कर्मफल कैसे घटित होगा.  करना हमारे  बस में है लेकिन होना हमारे बस में नहीं है. करने के लिए मनुष्य के पास विवेक उपलब्ध है. विवेक से निर्धारित किया जा सकता है की क्या करना चहिये और क्या नहीं.
प्रश्न हो सकता है की मान लीजिये किसी ने किसी की हत्या कर दी तो यह इनका कर्म भोग था मारने वाले को बदला लेना था और मरने वाले को बदला चुकाना था.  बात ठीक है लेकिन यहाँ भी "करना" और "होना" देखना पड़ेगा मरने वाले को तो अपने कर्म का फल मिल गया. उसका तो जो "होना" था हो गया, पर उस करने वाले के साथ फिर एक कर्म बंधन जुड़ गया. हत्या करने वाला इस नए कर्म को होने से अपने विवेक से रोक सकता था. क्योंकि करने पर उसका अधिकार था. मनुष्यमात्र को विवेकशक्ति प्राप्त है और उस विवेक के अनुसार अच्छे या बुरे काम करने में वह स्वतंत्र है. विवेक छोड़कर दूसरे को मारना  या बुरा करने की नियत दोष है . कोई कहे की जैसा प्रारब्ध है उसी हिसाब से बुद्धि बन गयी, फिर मारने वाले का क्या कसूर ?
कसूर था की उसने अपनी बुद्धि को द्वेष के अधीन कर दिया, जिससे घटना के "होने" में उसका "करना" सहायक हो गया .
कर्म-सिद्धांत के चक्र से दूर होने का नाम ही तो मुक्ति है, जिसे प्राप्त करना परम उद्देश्य है. और इसकी प्राप्ति के लिए हर जीव के पास विवेक शक्ति है जिसका उपयोग करके जीव इस कर्मबंधन से मुक्त हो सकता है. और मुक्त होना ही परम पुरषार्थ है. 

इसलिए सभी अच्छे बुरे कर्मों  का ध्यान देते हुए हमें अपने जीवन में सज्जनता लाते हुए, दूसरों की भलाई के काम करने चहिये जिससे कि पिछले गलत कामों को भोगते  हुए हमसे कोई दूसरा गलत काम ना जो जाये जिसका फल फिर दुखदायी हो. 


19 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब लिखा है, पर आजकल यह अनमना सा क्यों पस्डा है.

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  2. कर्म-सिद्धांत के चक्र से दूर होने का नाम ही तो मुक्ति है, जिसे प्राप्त करना परम उद्देश्य है.

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  3. बहुत कुछ घटा है, बहुत कुछ घट रहा है और बहुत कुछ आगे घटेगा. दोस्त यही तो जीवन है..एक घाटे का सौदा... ये यूँ ही चलता रहेगा....

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  4. .... फिर एक कर्म बंधन जुड़ गया. हत्या करने वाला इस नए कर्म को होने से अपने विवेक से रोक सकता था. क्योंकि करने पर उसका अधिकार था. मनुष्यमात्र को विवेकशक्ति प्राप्त है और उस विवेक के अनुसार अच्छे या बुरे काम करने में वह स्वतंत्र है.

    @ जटिल विषय को सरलता से समझाया है. फिर भी प्रश्न हैं कि इस धर्म सभा में हाथ खड़ा किये बिना नहीं रहते.
    ?.... एक ट्रेन दुर्घटना घटी. हज़ारों की संख्या में लोग हताहत हुए, काफी मरे भी.
    बच्चे भी शिकार हुए जिन्हें भविष्य की लम्बी पारी खेलना बाक़ी था. इस दुर्घटना को देखने वालों की संख्या भी काफी थी. इसकी सूचना मीडिया द्वारा पूरे जगत में फ़ैल गयी.
    सभी के मन इससे व्यथित हुए, हताहतों के परिजन शोक सागर में डूबे, मेरे जैसे केवल शोक में डूबे-डूबे प्राशासन को कोसते रहे.
    इनके पीछे क्या प्रारब्ध था? आपके विचार का एक अंश याद आया : "भले ही कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारी परिस्थिति के लिए उत्तरदायी दिख रहा हो, पर वह हमारे सुख-दुःख का मूल कारण बिलकुल भी नहीं है.बल्कि अनेक जन्मों में हमारा अनेक जीवात्माओं से सम्बन्ध रहता है. उनके साथ हमारा ऋणानुबंध है, जिसे हमें समय अनुसार चुकता करना होता है. इस तरह प्रत्येक परिस्थिति का मूल कारण हम ही है."

    — क्या इस घटना से मेरा कुछ लेना-देना होगा? यदि हाँ तो कितनी मात्रा में?
    — क्या इस घटना का 'हर सूचना पाने वाले के पिछले जन्म से' कनेक्शन होगा?
    — क्या एक-सा कर्म-फल भोग करने वाले एकाधिक संख्या में हो सकते हैं? वह भी हज़ारों की संख्या में.
    — क्या यह रेल-दुर्घटना सामूहिक कर्म-फल का परिणाम हो सकती है?
    — क्या इस दुर्घटना में निर्दोष लोगों के होने की संभावना होगी? जिनका पूर्व जन्म पर आधारित कर्म-फल उत्तम ही होना चाहिए था.

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  5. अधिक विस्तार में जाते हुए प्रातुल जी के सवालों के जवाब में सिर्फ चन्द शब्दों में कहना चाहूँगा कि "जैसा करोगे, वैसा भरोगे" यह नियम केवल एक व्यक्ति पर ही लागू नहीं होता है। एक मनुष्य जैसा ही एक कुटुम्ब को, एक जाति को या एक राष्ट्र को भी अपने अपने किए हुए कर्म भोगे बिना छुटकारा नहीं है। चूँकि प्रत्येक मनुष्य का किसी न किसी कुटुम्ब में, जाति में या राष्ट्र में समावेश होता है, इस कारण स्वत: के कर्म ही नहीं अपितु कुटुम्बादिक सामाजिक कर्मों के फल भी प्रत्येक मनुष्य को अंशत: भोगने पडते हैं और मनुष्य के अपने कर्म फल समाज को.......

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  6. प्रतुलजी आपके सवालों का यथामति उत्तर खोजने की कोशिश की है , जबकि समाधान सुन्दर शब्दों में पंडित जी ने कर ही दिया है. फिर भी चर्चा को गति देने की कोशिश मात्र है ------------------
    — क्या इस घटना से मेरा कुछ लेना-देना होगा? यदि हाँ तो कितनी मात्रा में?
    # सुख-दुःख कई प्रकार से प्राप्त होता है, इस प्रमाण से अगर आपको यह खबर सुनकर मानवीय संवेदना हुयी आपका प्रारब्ध सिर्फ इतना ही जुड़ा, हो सकता है की दुर्घटना में हताहत व्यक्तियों/व्यक्ति को कभी/किसी जन्म में आप द्वारा प्राप्त सूचना से वेदना प्राप्त हुयी. परिणाम-स्वरुप आपको अभी उनसे प्रत्यक्ष सम्बन्ध ना होते हुए भी उनसे जुडी प्रत्यक्ष घटना से आपके ह्रदय को वेदना हुयी. और अगर उस घटना में आपका कोई परिचित हताहत हुआ तो आपको प्रत्यक्ष वेदना फल प्राप्त होगा ही. मात्रा संबंधो के अनुसार निर्धारित है. अंजानो के प्रति संवेदना, जानकारों के प्रति विरह-वेदना .

    — क्या इस घटना का 'हर सूचना पाने वाले के पिछले जन्म से' कनेक्शन होगा?
    # इसका उत्तर उपरोक्तानुसार ही है .

    — क्या एक-सा कर्म-फल भोग करने वाले एकाधिक संख्या में हो सकते हैं? वह भी हज़ारों की संख्या में.
    # जी बिलकुल ................ लाखों की संख्या में भी हो सकतें है.

    — क्या यह रेल-दुर्घटना सामूहिक कर्म-फल का परिणाम हो सकती है?
    # जी हो सकती है नहीं है ही .

    — क्या इस दुर्घटना में निर्दोष लोगों के होने की संभावना होगी? जिनका पूर्व जन्म पर आधारित कर्म-फल उत्तम ही होना चाहिए था.
    # श्रीमान उस विराट का न्याय विधान अत्यंत जटिल प्रतीत होते हुए भी, अत्यंत सरल और निश्छल है. किसी प्रकार की चूक का सवाल ही नहीं है. हमें ऐसी शंका करनी ही नहीं चाहिये की पाप तो कम था पर दंड अधिक भोगा. मान लीजिये की एक सरल परोपकारी दंपत्ति है उनके एक संतान हुयी और कुछ ही दिनों बाद असाध्य रोग से मर गयी जिसका माता-पिता ने काफी खर्चा करके इलाज़ करवाया. माता-पिता का उस संतान से कुछ लेनदेन कभी का बाकी था जिसे चुकता कर वह जीव चलता बना. अभी की परोपकारिता काम नहीं आई वरन पूर्व संचित प्रारब्ध से जीवन में हलचल मची, उस जीव के इस जन्म में सिर्फ इतने ही कर्म भोग शेष थे जिन्हें भोग कर वह चला गया. जबकि इस जन्म में वह बिलकुल निर्दोष था .

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  7. प्रतुलजी आपके सवालों का यथामति उत्तर खोजने की कोशिश की है , जबकि समाधान सुन्दर शब्दों में पंडित जी ने कर ही दिया है. फिर भी चर्चा को गति देने की कोशिश मात्र है ------------------
    — क्या इस घटना से मेरा कुछ लेना-देना होगा? यदि हाँ तो कितनी मात्रा में?
    # सुख-दुःख कई प्रकार से प्राप्त होता है, इस प्रमाण से अगर आपको यह खबर सुनकर मानवीय संवेदना हुयी आपका प्रारब्ध सिर्फ इतना ही जुड़ा, हो सकता है की दुर्घटना में हताहत व्यक्तियों/व्यक्ति को कभी/किसी जन्म में आप द्वारा प्राप्त सूचना से वेदना प्राप्त हुयी. परिणाम-स्वरुप आपको अभी उनसे प्रत्यक्ष सम्बन्ध ना होते हुए भी उनसे जुडी प्रत्यक्ष घटना से आपके ह्रदय को वेदना हुयी. और अगर उस घटना में आपका कोई परिचित हताहत हुआ तो आपको प्रत्यक्ष वेदना फल प्राप्त होगा ही. मात्रा संबंधो के अनुसार निर्धारित है. अंजानो के प्रति संवेदना, जानकारों के प्रति विरह-वेदना .

    — क्या इस घटना का 'हर सूचना पाने वाले के पिछले जन्म से' कनेक्शन होगा?
    # इसका उत्तर उपरोक्तानुसार ही है .

    — क्या एक-सा कर्म-फल भोग करने वाले एकाधिक संख्या में हो सकते हैं? वह भी हज़ारों की संख्या में.
    # जी बिलकुल ................ लाखों की संख्या में भी हो सकतें है.

    — क्या यह रेल-दुर्घटना सामूहिक कर्म-फल का परिणाम हो सकती है?
    # जी हो सकती है नहीं है ही .

    — क्या इस दुर्घटना में निर्दोष लोगों के होने की संभावना होगी? जिनका पूर्व जन्म पर आधारित कर्म-फल उत्तम ही होना चाहिए था.
    # श्रीमान उस विराट का न्याय विधान अत्यंत जटिल प्रतीत होते हुए भी, अत्यंत सरल और निश्छल है. किसी प्रकार की चूक का सवाल ही नहीं है. हमें ऐसी शंका करनी ही नहीं चाहिये की पाप तो कम था पर दंड अधिक भोगा. मान लीजिये की एक सरल परोपकारी दंपत्ति है उनके एक संतान हुयी और कुछ ही दिनों बाद असाध्य रोग से मर गयी जिसका माता-पिता ने काफी खर्चा करके इलाज़ करवाया. माता-पिता का उस संतान से कुछ लेनदेन कभी का बाकी था जिसे चुकता कर वह जीव चलता बना. अभी की परोपकारिता काम नहीं आई वरन पूर्व संचित प्रारब्ध से जीवन में हलचल मची, उस जीव के इस जन्म में सिर्फ इतने ही कर्म भोग शेष थे जिन्हें भोग कर वह चला गया. जबकि इस जन्म में वह बिलकुल निर्दोष था .

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  8. पंडित जी ने थोड़े शब्दों में ही निराकरण कर दिया. लेकिन उसके बाद भी जो प्रश्न निरुत्तर रह गया था वह फिर से हाथ उठाने की सोच ही रहा था कि आपने उसे भी समझा-बुझाकर बैठा दिया.
    अब इस अशिष्ट मन में जो प्रश्न खड़े होने की सोच रहे हैं, उनकी मैं स्वयं धुनाई करके इस धर्म सभा में वितंडा खड़ा नहीं होने दूँगा.
    मुझे आध्यात्मिक चर्चा बेहद भाती है और प्रश्न तब अधिक सूझते हैं जब मंच पर पंडित लोग विराजमान हों.
    यदि कोई उद्दंडता की हो तो क्षमा भाव रखियेगा. मेरा पंडितों के प्रति प्रेम प्रश्नोत्तर-क्रीड़ा वाला होता है.

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  9. जो किया सो तै किया, मैं कुछ कीन्हा नाहीं !!
    जहाँ कहीं कुछ मैं किया, तुम ही थे मुझ माहीं !!!

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  10. @ अब इस अशिष्ट मन में जो प्रश्न खड़े होने की सोच रहे हैं, उनकी मैं स्वयं धुनाई करके इस धर्म सभा में वितंडा खड़ा नहीं होने दूँगा.

    # यह तो बिलकुल गलत बात हुयी प्रतुलजी आपके प्रश्न पूछने से हमें भी पंडितजी जैसे विज्ञ जनों का प्रसाद मिल जाता है और आप कह रहें है की प्रश्न ही नहीं पूछूँगा.

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  11. खूबसूरत लेख।
    ऐसी ज्ञान गंगा बहती रहे तो हम जैसे भी डुबकी लगाते रहेंगे, इसीलिये तो आपको मिस करते रहे।
    कर्म से नहीं बच सकते हम, तो श्रेयस्कर यही है कि ऐसे कर्म करें जिनसे किसी की हानि न हो, जैसा कि आपने अपने अंतिम पैरा में लिखा है।
    आभार स्वीकार करें।

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  12. सही कहा मौसमजी आपने कर्म ऐसे ही होने चहिये जिनसे किसी की हानि ना हो और इसके लिए ईश्वर में व्यक्ति को विवेक रुपी शक्ति दी है. अब यह तो हमारे ऊपर ही है की हम उसका कितना उपयोग कर पाते है ........................ या फिर लिखने बोलने की फी चीज़ बनाकर रख देतें है ,,,,, आपने भी देखा होगा की गजेन्द्र जी के ब्लॉग पर मैंने इस विवेक शक्ति का प्रयोग नहीं किया. फिर क्या फायदा ऐसी धर्म-चर्चा करने मात्र का ............... परे कोशिस में लगा हूँ की विवेक का अधिक से अधिक प्रयोग करूँ.

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  15. अमित जी,
    आपके लेख पर विचार करते मैं काफी दूर निकल आया, एक बार फिर मेरे प्रश्न आपके माध्यम से ही वत्स जी की वात्सल्य दृष्टि चाहते हैं.
    — क्या सत्य एक ही होता है? या फिर उसके भी दायरे हैं?
    — क्या सत्य बुद्धी की क्षमताओं के अनुसार बदलता रहता है?
    — क्या मेरा आज का बौद्धिक स्तर वर्तमान मान्य और स्थापित सत्य को अंतिम सत्य मानने की भूल करे ले?
    उदाहरण के माध्यम से बात को और अधिक स्पष्ट करता हूँ :
    — सूर्य पूर्व से निकलता है. यह एक सामाजिक सत्य है और प्राकृतिक भी. इसी की शिक्षा परम्परा रूप में प्रवाहित भी है. अस्त होने संबंधी सर्वमान्य सत्य भी एक ही है. ध्रुवीय प्रदेशों में यह सत्य कुछ और रूप ले लेगा. क्या वहाँ दिकभ्रम जैसी स्थिति होगी? सूर्य एक छोर पर टंगा है तो टंगा ही है. नदारद है तो महीनों नदारद ही है. क्या 'सत्य' स्थान-सापेक्ष होकर अपने रूप में बदलाव ले आता है?
    — आपने कई प्रश्नों का निराकरण किया और वत्स जी ने भी किया. इसी से अंतर्मन में प्रश्न उठते रहे, क्या 'सत्य' बुद्धी की क्षमताओं के अनुसार बदलता रहता है? और इसी कारण धर्म-सभाओं में शास्त्रार्थ और तर्क-वितर्क-कुतर्कों का संग्राम मचा रहता है. जो जीता उसी की बात स्वीकृत. फिर भी अहम् है कि झुकने को तैयार नहीं होता कई विद्वानों का. [तो ऐसे में] क्या मेरा आज का बौद्धिक स्तर वर्तमान मान्य और स्थापित सत्य को अंतिम सत्य मानने की भूल करे ले?
    — क्या हम सत्य की खोज आज भी कर रहे हैं?
    — सूर्य स्थिर है, यह भी एक सत्य है, लेकिन उसके उदय और अस्त की घटनाओं को देख हम एक अन्य सत्य गढ़ लेते हैं. फिर वृहत दृष्टि से विचारते हैं तो पाते हैं कि यह स्थिर सूर्य वाला 'सत्य' भी हमारे 'सौर्यमंडल तक ही तो फैलाव लिए है. ब्रहमांड में न जाने कितने सत्य अपना अलग-अलग कायदा लिए बैठे होंगे.

    >>> यदि कोई वाचिक उद्दंडता की हो तो अल्पज्ञ जान भुला देना. और यदि बातें स्पष्ट ना हो पायीं हों तो फिर मेल के ज़रिये अलाप करेंगे.

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  16. nice post

    http://naukari-times.blogspot.com

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  17. जय श्री राधे-राधे भाईसाहब

    मैंने आपको जो फोन न. दिया था वो ऑफिस से मिला था, नौकरी छोडने पर वापस कर दिया
    आप मेरे न. पर फोन करें - 09717119022

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  18. "सभी अच्छे बुरे कर्मों का ध्यान देते हुए हमें अपने जीवन में सज्जनता लाते हुए, दूसरों की भलाई के काम करने चहिये जिससे कि पिछले गलत कामों को भोगते हुए हमसे कोई दूसरा गलत काम ना जो जाये जिसका फल फिर दुखदायी हो"

    अमित शर्मा अति सुंदर

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जब आपके विचार जानने के लिए टिपण्णी बॉक्स रखा है, तो मैं कौन होता हूँ आपको रोकने और आपके लिखे को मिटाने वाला !!!!! ................ खूब जी भर कर पोस्टों से सहमती,असहमति टिपियायिये :)