मंगलवार, 30 नवंबर 2010

जर्रे जर्रे में तू ही, दिखे ना कोई अलहदा ------- अमित शर्मा


रसाई माँगता हूँ नज़रों की तुझसे खुदा
जर्रे जर्रे में तू ही, दिखे ना कोई अलहदा  


नाद-ऐ-अनलहक की गूंज में सरसार रहूँ
एक तू ही  एक ही तू  बार बार हरबार कहूँ 

खालिक हो तुम कायनात के मालिक तुम हो
क्या है रीता तुमसे जो बता इन खाफकानो को 


गर कहूँ के तू  बस वहाँ और ना कहीं यहाँ
तेरी ही बुलंदी पे तोहमत होगा मेरा कहा


सदाकत का जाम पियूँ साकी तुम रहना
सदाअत में बन्दों की तेरे जिंदगानी रखना 


गाफिल ना होऊं फ़र्ज़ ओ ईमान से रहनुमाई रखना
भूल जाऊ मैं तुझको मगर तुम याद अमित रखना


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रसाई -----------    पहुंचने की क्रिया या भाव। पहुँच।
अलहदा -------     जुदा। पृथक्। अलग। भिन्न।
अनलहक -----     एक अरबी पद जो अहं ब्रह्मास्मि का वाचक है
सरसार --------    मग्न
खालिक --------   सृष्टि की रचना करनेवाला। ईश्वर। स्रष्टा।
 कायनात ------   सृष्टि
खाफकानो ------ पागल। 
सदाकत -------   सच्चाई। सत्यता।
सदाअत -------   भलाई  नेकी 
गाफिल ------    बेपरवाह, बेखबर, असावधान, उपेक्षक

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

आप जो पूछा किया करते हो हाल-ऐ-अमित तफ़ज्जुल है आपका


आप कहते हो ग़मज़दा क्यों हो, कुछ कहकहाया भी किया करो
कहकहा क्या ख़ाक लगाएं पर, जब तबियत-ऐ-जहाँ नासाज हो

कोई ना, हामी-ऐ-गैरत यहाँ पर , बस गैरियत सी जमी जहाँ पर
कह ना पाए बात अपनी रवानी में, ठण्ड सी घुली है हर जवानी में

आप जो पूछा किया करते हो हाल-ऐ-अमित तफ़ज्जुल है आपका
वरना ज्यादा  तफावत से ही पडा करता है आजकल हमारा वास्ता

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हामी-ऐ-गैरत --------- सद्भावना के तरफदार 
गैरियत -------------  परायापन 
तफ़ज्जुल -----------  बड़प्पन
तफावत-------------  वैर-विरोध आदि के कारण आपस में होनेवाला अन्तर। मन-मुटाव।

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

राजेंद्र स्वर्णकार जी की आवाज में, बाबा को टूटे-फूटे शब्दों में श्रद्धांजली


आज मेरे दादाजी की पुण्यतिथि है . काफी पहले अपने टूटे-फूटे भाव लिखे थे. उन्ही भावों को आदरणीय राजेंद्र स्वर्णकार जी "शस्वरं" ने अपनी मधुर वाणी से सिक्त कर दिया है, उनके इस स्नेह वर्षण से अभिभूत हूँ . पोस्ट की सज्जा भी उन्ही की की हुयी है, और ऑडियो फाइल ब्लॉग पर अपलोड    उनके प्रयास से ही हो पाया है. 
राजेंद्र स्वर्णकार जी की आवाज में, बाबा को टूटे-फूटे शब्दों में श्रद्धांजली----- "

 ॐ

आज फिर से रात भर आपकी याद आई 

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आज  फिर से रात भर आपकी  याद आई
आज फिर से  रात भर हुई  नींद से रुसवाई  
तस्वीर जो देखी आपकी चली फिर से पुरवाई 
गुजरी हर एक बात  दौड़ी आँखों में भर आई  

जिन्दगी की धूप से जब कभी परेशां हुआ था
आप का ही  साया मैंने हमेशा सर पे पाया था 
साये तो वैसे  अब भी  जिन्दगी में खूब मिले है
पर मिला ना अब तक आप सा हमसाया कोई   

याद आती है अब भी बैठ काँधे पे घूमना आपके
घुमाता हूँ जब  बैठा काँधे पे पडपोते  को आपके
यादों  में ही आएंगे क्या अब  दिने - क़यामत तक
कहिये तो फिर आ चलें "अमित" जरा बाज़ार तक



रविवार, 21 नवंबर 2010

क्या कहर बरपा है कोई समझाए तो सही मुझ पागल अमित शर्मा को


हद है !!!!!!!  या तो मैं बिलकुल मुर्ख या यूँ कह लीजिये की परम मुर्ख हूँ जो अपने मन की सीधी सी बात भी ढंग से नहीं कह पाता हूँ......... या कुछ समझदार व्यक्तियों ने अपनी समझदारी सिर्फ  बात को कहीं दूसरी तरफ ले जा कर पटकने के लिए ही बुक कर रखी है..........
इस ब्लॉग की एक पोस्ट वेदों में मांसाहार की बात पर आई ................ भाई लोग आ पधारे की नहीं गधे तू कल का छोरा क्या जाने वेद-फेद ..................देख माता जी के बलि चढ़ती है तू क्यों टांड रहा है.................... अरे भाई बात यहाँ सिर्फ इतनी हो रही थी की हर चीज का अपना एक निचित विधान होता है उसी के हिसाब से सारा काम होता है अब वेद का भी अपना एक निश्चित विधान है उसी पे चलकर उसके अर्थ को जाना जा सकता है , पर नहीं वेद के हिसाब से नहीं वेवेकानंदजी की जीवनी जो पता नहीं किस ने लिखी होगी उसमें से उद्हरण देने लगे हमारे परम धार्मिक सात्विक बंधु .

बस हो गया ना मेरी पोस्ट का तो सत्यानाश!!!!!!!!!!! अरे भाई जिस प्रकार वेद में से ही वेद के ऊपर लगे आक्षेपों का निराकरण था, तो उसी तरह वेद में से ही सिद्ध करते की वेद में मांसाहार है ...बस फिर कौन किसको रोक सकता है हो गयी शुरू धींगा-मस्ती ,,,,,,,,,,,,,,,,,,, 

अगली पोस्ट थी की सिर्फ अपने जीभ के स्वाद के लिए उपरवाले के नाम ले ले कर क्यों किसी को बलि का बकरा बना कर कुर्बान कर दिया जाये ?????????? 

अरे भाई खाना ही है तो खाओ उपरले की आड़ क्यों ?????????
पर नहीं यहाँ भी पोस्ट से उल्टी बात किसी की ईद खराब हो गयी अपने धर्म का मजाक लगा क्यों लगा भाई ?? समझ में नहीं आया कम से कम मुझे तो ........... परम समझदार जी प्रकटे पोस्ट से कोई लेना देना नहीं और हवन को घुसेड दिया बीच में "लाहोल-विला-कुवत" यार कभी तो समझदारी का परिचय दो, किसी पोस्ट पर पोस्ट से सम्बंधित कमेन्ट करो .................. मेरे दो मित्र शाकाहार-मांसाहार पर चर्चा कर रहे थी अपनी बात रख रहे थे उसमें भी टांग अडाई से बाज नहीं आये पर क्या करें समझदार ज्यादा ठहरे ना. 

................... फिर दो वीडियो लगा दिए की देखो ऐसे निर्ममता से बलि / कुर्बानी होती है जिसको सिर्फ अपनी जीभ के चटखारे के लिए उपरवाले की आड़ में किया जाता है, और अगर ऊपर वाले की भी इसमें सहमति है तो धिक्कार है मेरी तरफ से तो !!!!!!!!!    बस क्या था शुरुवात हो गयी धडाधड पोस्टों की कोई नाम लेकर कोई संकेत मात्र कर कर समर्थन-विरोध में लगें है पुराणों से रामायण से निकाल निकाल कर ला रहे है .  

अब कोई पूछे तो क्या मतलब इस बे मतलब की बात का. जब की मुद्दा तो यह था की मांसाहार में उपरवाले की घाल-घुसेड क्यों, आप को खाना  है तो खाओ. 
 इसमें  ऐसा  क्या कहर बरपा है कोई समझाए तो सही मुझ पागल अमित शर्मा को, क्योंकि मुझे कुछ समझ में नहीं आया की वेदों में मांसाहार का खंडन करना कैसे ब्लोगिंग का माहोल खराब करना हो गया,,,,,,,,,,,,,, मांसाहार के लिए अल्लाहजी/माताजी का नाम की आड़ लेने का विरोध करना कैसे ब्लॉगजगत की हवा दूषित करना हो गया ???????????   

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

आप खुद देखिये और फैसला कीजिये क्या यही धर्म है ?? तो भाड़ में जाए ऐसा धर्म

टोंक, राजस्थान में ईद-उल-अजहा के मौके पर दी जाने वाली ऊंट की कुर्बानी



कामख्या मंदिर में बलिदान---------

बुधवार, 17 नवंबर 2010

अगर अल्लाह की राह में कुर्बानी ही करनी है तो पहले हजरत इब्राहीम की तरह अपनी संतान की बलि देने का उपक्रम करे फिर अल्लाह पर है की वह बन्दे की कुर्बानी कैसे क़ुबूल करता है.

अल्लाह ने कुर्बानी इब्रा‍हीम अलैय सलाम से उनके बेटे की मांगी थी जो की उनका इम्तिहान था, जिसे अल्लाह ने अपनी रीती से निभाया था. अब उसी लीकटी को पीटते हुए कुर्बानी की कुरीति चलाना कहाँ तक जायज है समझ में नहीं आता. अगर अल्लाह की राह में कुर्बानी ही करनी है तो पहले हजरत इब्राहीम की तरह अपनी संतान की बलि देने का उपक्रम करे फिर अल्लाह पर है की वह बन्दे की कुर्बानी कैसे क़ुबूल करता है. 
भगवती दुर्गा को जगत माता कहकर पुकारा जाता है, फिर उन्ही जगत माता को कुकर्मिजन जगत के जीवों की बलि चढ़ा देते हैं, फिर वे जगत  माता कैसे सिद्ध हुयी. स्पष्ट है असुर स्वाभाव के मनुष्यों ने अपने जीभ के स्वाद के लिए हर उपासना पद्दत्ति में बलि परम्परा को परमेश्वर के नाम पर प्रविष्ट कर दिया. और ईश्वर का नाम ले लेकर अपने पेट को बूचड़-खाना बना डाला. 

मेरा विरोध हर उस कृत्य के प्रति है जो कहीं भी मात्र अपने जीभ के स्वाद और उपासना के नाम पर हिंसा करता है, फिर वोह चाहे अल्लाह की राह में कुर्बानी का ढोंग हो या देवी-देवताओं के निमित्त बलि का पाखण्ड. 

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रहम करो परवरदिगार

मुझे बचाओ ..... मुझे बचाओ 
............ चीखें आती कानों में 
लेकिन उन चीखों की .. ऊँची 
........... कीमत है दुकानों में.


अल्लाह किस पर मेहरबान है 
........ समझ नहीं है खानों में. 
ईद मुबारक ..... ईद मुबारक 
.......... बेजुबान की जानों में.


रहम करो ...... परवरदिगार 
पशु कत्लगाह - ठिकानों में. 
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खानों — खान का बहुवचन 
दूसरा  अर्थ — भक्ष्य-अभक्ष्य में हमें अपने भोजन की ही समझ नहीं रही. 
अल्लाह किस पर मेहरबान है हम पर या बेजुबान जानवरों पर?

प्रतुल वशिष्ठ जी के ब्लॉग  Kavya Therapy से  साभार

सोमवार, 15 नवंबर 2010

वेद साक्षात भगवान् की वाणी है, उनमें ऐसी कोई बात कभी नहीं हो सकती जो मनुष्य को अनर्गल विषयभोग और हिंसा की और जाने के लिए प्रोत्साहित करती हो.

इस संसार में अनेक प्रकार की प्रकृति के लोग है ; गीताजी में उनको दो भागों में विभक्त किया गया है ------ एक दैवी प्रकृति के तथा दूसरे आसुरी प्रकृति के मनुष्य----

     "द्वौ भूतसर्गौ लोकेsस्मिन दैव आसुर एव च"

इन दोनों प्रकार की प्रकृति के मनुष्यों के बारे में कुछ बताने की आवश्यकता ही नहीं है. फिर भी बिलकुल सूक्ष्म रूप से कहना चाहे तो कह सकते है की दैवी प्रकृति के लोग सात्विक जीवनचर्या का निर्वहन करते हुए परोपकार में निरत रहते है, जबकि आसुरी वृत्ति के मनुष्य दंभ,मान और मद में उन्मत्त हुए स्वेच्छाचार पूर्ण आचरण करते हुए पापमय जीवन जीते है.
बतलाने की आवश्यकता नहीं की प्राय ऐसे आसुरी लोग ही मांस-भक्षण और अश्लील सेवन की रूचि रखते है, और ऐसे कुक्करों ने ही अर्थ का अनर्थ करके वेद आदि शास्त्रों में मद्य मांस तथा मैथुन की आज्ञा सिद्ध करने की धृष्टता की है.


महाभारत में कहा गया है की प्राचीन काल से यज्ञ-याग आदि केवल अन्न से ही होते आये है. मद्य-मांस की प्रथा इन धूर्त असुरों ने अपनी मर्जी से चला दी है. वेद में इन वस्तुओं का विधान ही नहीं है------
१.  श्रूयते हि पुरा कल्पे  नृणां  विहिमयः  पशु: । 
    येनायजन्त  यज्वानः  पुण्यलोकपरायणाः ।।                  
२. सुरां मत्स्यान मधु मांसमासवं क्रसरौदनम । 
    धुर्ते:  प्रवर्तितं  ह्योतन्नैतद  वेदेषु कल्पितम ।।


असुर शब्द का अर्थ ही है --- "प्राण का पोषण करने वाला"  जो अपने सुख के लिए दूसरे प्राणियों की हिंसा करते है वे सभी असुर है. ये शास्त्र पड़ते हि इसलिए है की शास्त्र का मनमाना अर्थ करके येनकेन प्रकारेण शब्दों की व्युत्पत्ति करके खींचतान से चाहे जो अर्थ निकाल कर शास्त्रों की मर्यादा का नाश किया जा सके. इन कुकर्मियों द्वारा वेदों द्वारा यज्ञों में मद्य-मांस का विधान, पशुवध की रीति बतायी गयी है ऐसा कहा जाता है .


वेद साक्षात भगवान् की वाणी है, उनमें ऐसी कोई बात कभी नहीं हो सकती जो मनुष्य को अनर्गल विषयभोग और हिंसा की और जाने के लिए प्रोत्साहित करती हो. वेद भगवान् की तो स्पष्ट आज्ञा है ------------ "मा हिंस्यात सर्वा भूतानि" ( किसी भी प्राणी की हिंसा ना करें ).
बल्कि यज्ञ के ही जो प्राचीन नाम है उनसे ही यह सिद्ध हो जाता है की यज्ञ सर्वथा अहिंसात्मक होते आये है.
"ध्वर" शब्द का अर्थ है हिंसा. जहाँ ध्वर अर्थात हिंसा ना हो उसी का नाम है "अध्वर" . यह "अध्वर" ही यज्ञ का पर्यायवाची नाम है . अतः हिंसात्मक कृत्य कभी भी वेद विहित यज्ञ नहीं माना जा सकता है.
"यज" धातु से "यज्ञ" बनता है. इसका अर्थ है----- देवपूजा,संगतिकरण और दान. इनमें से कोई से भी क्रिया हिंसा का संकेत नहीं करती है.


वैदिक यज्ञों में तो मांस का इतना विरोध है की मांस जलाने वाली आग को सर्वथा ताज्य घोषित किया गया है. प्राय: चिताग्नि ही मांस जलाने वाली होती है. जहाँ अपनी मृत्यु से मरे हुए मनुष्यों के अंत्येष्टि-संस्कार में उपयोग की जाने वाली अग्नि का भी बहिष्कार है, वहाँ पावन वेदी पर प्रतिष्ठापित विशुद्ध अग्नि में अपने द्वारा मरे गए पशु के होम का विधान कैसे हो सकता है ?
आज भी जब वेदी पर अग्नि की स्थापना होती तो उसमें से अग्नि का थोडा सा अंश निकालकर बाहर रख दिया जाता है. इस भावना के साथ की कहीं उसमें क्रव्याद (मांस-भक्षी या मांस जलाने वाली अग्नि ) के परमाणु ना मिले हो. अत: "क्रव्यादांशं त्यक्त्वा" (क्रव्याद का अंश निकालकर ही ) होम करने की विधि है.
ऋग्वेद का वचन है-------
     क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यमराज्ञो गच्छतु रिप्रवाहः ।
       एहैवायमितरो जातवेदा  देवेभ्यो  हव्यं  वहतु  प्रजानन ।। 
                                                                                   ( ऋ ७।६।२१।९ )
"मैं  मांस भक्षी या जलाने वाली अग्नि को दूर हटाता हूँ, यह पाप का भार ढोने वाली है ; अतः यमराज के घर में जाए. इससे भिन्न जो यह दूसरे पवित्र और सर्वज्ञ अग्निदेव है, इनको ही यहाँ स्थापित करता हूँ. ये इस हविष्य को देवताओं के समीप पहुँचायें ; क्योंकि ये सब देवताओं को जानने वाले है."


ऋग्वेद में तो यहाँ तक कहाँ गया है की जो राक्षस मनुष्य,घोड़े और गाय आदि पशुओं का मांस खाता हो तथा गाय के दूध को चुरा लेता हो, उसका मस्तक काट डालो --------
यः पौरुषेयेण क्रविषा समङ्गक्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः ।
  यो  अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां  शीर्षाणि  हरसापि वृश्च ।। 
( ऋ ८।४।८।१६ )
 
अब प्रश्न होता है की वेदों में आदि मांस वाचक या हिंशा बोधक कोई शब्द ही प्रयुक्त न हुआ होता तो कोई उसका इस तरह का अर्थ कैसे निकाल सकता है ? 
इसका चिंतन करने योग्य सरल उत्तर यह है की प्रकृति स्वभावतः निम्न गामी होती है ; अतः प्रकृति के वश में रहने वाले मनुष्यों की प्रवृत्ति स्वभावतः विषयभोग की ओर जाती है. आसुरी स्वाभाव वाले विशेष रूप से निकृष्ट भोगों की तरफ जातें है. ओर उनकी प्राप्ति के साधन खोजतें है. इसी न्याय से इन आसुरी प्रकृति के लोगों ने वेद कथनों का मनमाना अर्थ लगा कर अपने कुकर्मों को वेद विहित कर्म घोषित कर दिया. 
महाभारत में प्रसंग आता है की एक बार ऋषियों और दूसरे लोगों में  "अज" शब्द के अर्थ पे विवाद हुआ. ऋषि पक्ष का कहना था की "अजेन यष्टव्यम" का अर्थ है  "अन्न से यज्ञ करना चाहिये. अज का अर्थ है उत्पत्ति रहित; अन्न का बीज ही अनादी परम्परा से चला आ रहा है; अतः वही  "अज" का मुख्य अर्थ है; इसकी उत्पत्ति का समय किसी को ज्ञात नहीं है; अतः वही अज है."
दूसरा पक्ष अज का अर्थ बकरा करता था. दोनों पक्ष निर्णय कराने के लिए राजा वसु के पास गए. वसु कई यज्ञ कर चुका था . उसके किसी भी यज्ञ में  मांस का प्रयोग नहीं हुआ था, पर उस समय तक वह मलेच्छों के संपर्क में आकर ऋषि द्वेषी बन गया था. ऋषि उसकी बदली मनोवृत्ति से अनजान उसी के पास न्याय करवाने पहुँच गए . उसने दोनों का पक्ष सुनकर ऋषियों के मत के विरुद्ध निर्णय देते हुए कहा " छागेनाजेन यष्टव्यम" . असुर तो यही चाहते थे. वे इस मत के प्रचारक बन गए; पर ऋषियों ने इस मत को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि यह किसी भी हेतु से संगत नहीं बैठता था. 

संस्कृत-वांग्मय में अनेकार्थ शब्द बहुत है. "शब्दा: कामधेनव:" यह प्रसिद्द है. उनसे अनेक अर्थों का दोहन होता है. पर कौन सा अर्थ कहाँ लेना ठीक है यह विवेकशीलता का काम है. कोई यात्रा पर जा रहा हो और "सैन्धव"  लाने के लिए काहे तो उस समय "नमक" लाने वाला मुर्ख ही कहलायेगा, उस समय तो सिन्धु देशीय घोड़ा लाना ही उचित होगा. इसी तरह भोजन में सैन्धव डालने के लिए कहने पर नमक ही डाला जाएगा घोड़ा नहीं .
इसी तरह आयुर्वेद में कई दवाइयों में घृतकुमारी (ग्वारपाठा) का उपयोग होता है, तो जहां दवा बनाने की विधि में " प्रस्थं कुमारिकामांसम " लिखा गया है; वहाँ किलो भर घृतकुमारी/ग्वारपाठा/घीकुंवार का गूदा ही डाला जाएगा . कुँवारी-कन्या का एक किलो मांस डालने की बात तो कोई नरपिशाच ही सोच सकता है. 
(साभार कल्याण उपनिषद-अंक)
                                                                                             जारी..............