शुक्रवार, 15 जून 2018

श्री "श्रीजी" श्रीराधासर्वेश्वरशरण देवाचार्य जी महाराज

नित्य निकुञ्ज बिहारी श्रीसर्वेश्वर-युगल, श्रीरङ्ग देवी सखी की कुञ्ज में लीलाविहार कर अनन्त सखियों को आनंद प्रदान कर रहे थे। उस नित्य सरस बिहार की सुख भूमि पर भी एक सखी किञ्चित विरह भाव भावित हो एक ओर खड़ी थी। उन सहचरी को इस प्रकार उदास देख अनन्य कृपा मयी श्रीकिशोरी जी ने कहा " हे सखी ! तुम आज इतनी उदास और विरह भाव से पूरित क्यों लग रही हो ?" सखी कुछ न बोली और नेत्रों से झर झर अश्रुपात होने लगा। तब श्रीरंगदेवी जी ने निवेदन किया कि, 
"प्यारीजु ! आप श्रीयुगल ने पूर्वकाल में मुझे भूतल पर त्रिताप दग्ध निज जन का त्राण करके उनको युगल चरण मे पहुंचाने का मार्ग प्रशस्त करने की आज्ञा प्रदान की थी तब मैंने अपने सुदर्शन-चक्र स्वरुप के तेजांश से निम्बार्क रूप में प्रकट होकर हंस वंश की जो परम्परा स्थापित करी थी उस परम्परा के निर्वहन का दायित्व अब इस प्यारी सखी को कुछ समय संभालना हैं। अतः ये आपके चरणन की चातकी भोली सखी विरह-भाव से दुःखी हो रही हैं।
तब श्रीयुगल दंपत्ति हस पड़े और श्रीलालजू ने कहा की, 
हे भोली सखी ! भूतल पर जो हंस-वंश की सरिता बह रही हैं उसमें तो हम नित्य ही जल-केलि किया करतें हैं, तथा हम दोनो मूर्तिमन्त स्वरुप हो "सर्वेश्वर" नाम से सदा तुम्हारे ही कण्ठ रुपी सिंहासन पर आसीन ​रहेंगे ​ तब यह विरह की भावना क्यों ?
श्रीप्यारे के ऐसे मधुर वचनों से अपने ताप को तिरोहित कर तब वह निजसखी ने श्रीयुगल चरण की आज्ञा को हृदय में धार भू लोक के लिए प्रस्थान किया, संग में कुछ सखियाँ पहुँचाने चली। 
मार्ग में एक सखी ने पूछा बताओ सखी भूलोक में किस स्थान पर अवतरित होवोगी तो रत्नप्रभा सखी ने कहा भारतवर्ष में, तब पहली सखी ने कहा भारतवर्ष में ही क्यों ? 
इसपर रत्नप्रभा सखी ने कहा की, सम्पूर्ण धरा पर एकमात्र भारतवर्ष की भूमि ही परम रम्य हैं जो श्रीयुगल की अति मन भावनी हैं। यह वह पुण्य भूमि हैं जो शास्त्रों-ऋषियों-तथा देवताओं द्वारा भी स्तुत्य हैं तथा वंदना योग्य हैं -

वन्दे नितरां भारतवसुधाम्।
दिव्यहिमालय-गंगा-यमुना-सरयू-कृष्णशोभितसरसाम् ।।
मुनिजनदेवैरनिशं पूज्यां जलधितरंगैरंचितसीमाम् ।
भगवल्लीलाधाममयीं तां नानातीर्थैरभिरमणीयाम् ।।
अध्यात्मधरित्रीं गौरवपूर्णां शान्तिवहां श्रीवरदां सुखदाम् ।
सस्यश्यामलां कलिताममलां कोटि-कोटिजनसेवितमुदिताम् ।।
वीरकदम्बैरतिकमनीयां सुधिजनैश्च परमोपास्याम् ।
वेद्पुराणैः नित्यसुगीतां राष्ट्रभक्तैरीड्याम् भव्याम् ।।
नानारत्नै-र्मणिभिर्युक्तां हिरण्यरूपां हरिपदपुण्याम् ।
राधासर्वेश्वरशरणोsहं वारं वारं वन्दे रम्याम् ।।

​सखी धर्म का केंद्र तथा मुनि-देवजन अभिलाषित यही भूमि हैं - 
वैदिकसंस्कृतिकेंद्रस्वरूपा ​नित्यं विबुधजनैरभिलाष्या ।।

यही एकमात्र भूमि हैं जिसपर अपने परम धर्म में निष्ठ धर्माचार्य निवास करतें हैं तथा इस पवित्र भूमि से अन्य किसी भूमि पे वास करने की सोचते भी नहीं -
धर्माचार्यै धर्मसुनिष्ठै-, नितरां धीरै: परिसन्धेयम्।

और हे सखी ! जिस स्थान पर अध्यात्म्धर्म - पथप्रदर्शक सभी परम आचार्यचरणों द्वारा जागतिक जीवों को अतुलित ज्ञान दिया जाता हैं उस परम सुन्दर भारत वर्ष का ही मैं अभिनन्दन करके अवतरित होउंगी। 

तब पहली सखी ने कहा की हे श्रीयुगल की प्यारी, आपकी सभी बातें समुचित हैं परन्तु भारत वर्ष के इतर अन्य भूमि में भी तो जीव निवास करतें हैं तथा ​उन अज्ञानी बद्ध जीवों के कल्याण की भी तो व्यवस्था होनी चाहिए। उन अज्ञान के तिमिर में अंध हुए बद्ध जीवों को वैष्णव धर्म की शरण में लेने हेतु या तो आप उन्ही देशों में अवतरित होवो अथवा आपकी मनोवाञ्छा अनुरूप भारतवर्ष में अवतरित होकर भी समय समय तद देशों में ज्ञान-भक्ति के प्रचार- प्रसार हेतु उन देशों की भी यात्रा किया करना।

रत्नप्रभा सखी ने गंभीर होते हुए कहा कि, हे सखियों ! आप लोग मेरी बात सुनिए ऐसा नहीं हैं की भारतवर्ष से इतर देश के निवासी ज्ञान पाने योग्य नहीं हैं। परन्तु जैसे पृथ्वीतल समस्त विश्व के सभी जनों के लिए शान्ति और सुख का विस्तार करता है ठीक वैसे ही 
"एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्र जन्मन:।
स्वं स्वं चरित्रां शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व मानवा :।" मनुस्मृति वचनानुसार इस भारतवर्ष से नित्य सत्प्रेरणा (मार्गदर्शन) भी हुआ करता है।

शान्तिं सुखम भुवि तनोति यथा जनेभ्य:, 
सत्प्रेरणामपि करोति तथैव नित्यम्। 
एतादृशं निखिलदानपरं प्रसिद्धं, 
वन्दे च तं रुचिरभारतवर्षदेशम् । ।

हे सखियों ! जीव के निजकर्मानुसार ही उनका यथा स्थान जन्म होता हैं। महान पुण्यों के उदय स्वरुप ही इस भारत भूमि पर जन्म होता हैं जिससे की वह यहाँ विराजमान धर्माचरण निरत आचार्यों के शीघ्र शरणागत हो अपने उद्धार के मार्ग पर दृढ हो सके। तथा प्रारब्ध वश जिनके पापकर्म भौतिक भोगों का फल शेष हैं वे पुण्यमयी भारतभूमि से अन्य देशों में जन्म लेते हैं। परन्तु संस्कारवश उनमें भी जिनका पुण्योदय हुआ हैं वे स्वयं ही इस भूमि की शरण लेकर इस भारतवर्ष में आकर शास्त्र सम्मत आध्यात्मिक धर्म की शिक्षा एवं यहाँ के निवासियों के आचरण से सत्प्रेरणा प्राप्त करते हैं -
देशा: समग्रा: श्रुतिधर्मशिक्षां 
सम्प्राप्नुवन्तींति महामहत्वम् ।
सत्प्रेरणां शास्त्रयुताञ्च यस्मात् 
तं भारतं नौमी सुभव्यरूपम् । ।

उन मुमुक्षुओं शरणागत जनों को यहाँ आश्रय प्राप्त होता हैं -
सदाSSश्रयो वै शरणागतानां

इस लिए हे सखियों ! शास्त्रानुमोदित इस पवित्र भारतवर्ष की रम्य भूमि पर ही मैं अवतरित होउंगी क्योंकि शास्त्र में जो निर्देश किया हैं वही करना परम कर्तव्य हैं। जीवों के लिये इस भूमि की संस्कृति तथा परम्परा ही परम सेवनिय है, इतर राष्ट्रों की सभ्यता एवं संस्कृति का सर्वथा परित्याग ही परम आवश्यक हैं -

युवकै मुख्यतो देशे सेवनियाSSत्मसंस्कृति: ।
हातव्ये परराष्ट्राणां सभ्यता - संस्कृति सदा । ।
शास्त्रविधि न हातव्यो यः सर्वमङ्गलप्रद: ।
तद्राहित्येन हानि: स्यादित्यत्र नास्ति संशय: । ।

यह सुस्थापित विधि हैं की इस पवित्र भारतभूमि का नित्य सेवन ही मङ्गलकारी हैं, अन्य पाश्चात्य मलेच्छ देशों के पथ की ओर तो भूलकर भी नहीं देखना चाहिए क्योंकि उस भूमि का वातावरण एवं वहाँ उपजी संस्कृति असेवनिय हैं - 
पाश्चात्यपथमादायाSचरन्ति ये जना द्रुतम ।
​भवन्तु सावधानास्ते तिष्ठन्तु स्वीयसंस्कृतौ । ।

तथा हे सखियों ! तपश्चर्या से जिनका उज्जवल स्वरुप परम पुण्य रूप है, ऐसे परम आस्थावान धर्मतत्वेत्ता हमारी सखी स्वरूपा आचार्यगण द्वारा निर्दिष्ट सुखप्रद जो मार्ग हैं वही हम सभी के लिए परम अनुसरणीय हैं। चूँकि भारत से इतर भूमि मलेच्छ भूमि हैं तो त्याज्य हैं क्योंकि बुद्धिमान व्यक्तियों का कर्त्तव्य हैं की वे दुस्सङ्ग का सर्वथा त्याग करदें तथा पवित्र सत्संग में ही स्वयं को प्रवृत करें। सर्वदा सर्वेश्वर श्रीहरि की उपासना तथा उन्ही का मङ्गलमय चिंतन अपने जीवन का कर्तव्य समझें। भारतवर्ष से इतर भूमि में श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा का लोप हो जाता हैं - 
पूर्वजानां दृढ़ाSSस्थानां धर्मतत्वविदां सताम् । 
तपसोज्ज्वलपुण्यानां ग्राह्यो मार्गः सुखप्रदः । ।
दुस्सङ्ग सर्वथा त्याज्य: संसेव्या साधुसङ्गति: । 
अभिज्ञै नितरां लोकै: कर्तव्यमात्मचिन्तनम् । ।

श्रीरत्नप्रभा सखी द्वारा इस प्रकार शास्त्र ज्ञान पूरित वाणी द्वारा उन सखियों ने श्रीभारतवर्ष की पुण्य भूमि को नमन किया तथा कहा कि, हे श्रीयुगल की लाड़ली सखी आप सत्य ही भारत धरा पर अवतीर्ण होवो तथा वहां बद्ध एवं मुमुक्षु जनों के अज्ञान का निवारण कर हंस वंश के संतों की ज्ञान गङ्गा में डुबकी लगवाकर उन्हें श्रीयुगल चरणों की ओर उन्मुख क्र उनके चित्त को शांत करों तथा विधिवत धर्म की मर्यादा दृढ कर शीघ्र ही अपने इस सखी स्वरुप को पुनः प्राप्त कर नित्यनिकुञ्ज में श्रीयुगल के सरस बिहार को निहार अमित आनंद लूटो।

तब रत्नप्रभा सखी ने भूतल पर भारतवर्ष के पुष्कर क्षेत्र के समीप अत्यंत पवित्र स्थान श्रीनिम्बार्क तीर्थ में अवतार ग्रहण किया तथा अपने यथा समयानुरूप लीला का प्रदर्शन करते हुये ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीया विक्रम सम्वत २००० के मङ्गल दिन श्रीमन्निखिलमहीमण्डलाचार्यचक्रचूड़ामणि, सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र, स्वाभाविक द्वैताद्वैत प्रवर्तक, यतिपतिदिनेश, राजराजेंद्र समभ्यर्चित-चरणकमल, श्रीसुदर्शन चक्रावतार श्रीरंगदेवी स्वरुप श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य की पावन परम्परा में श्रीसर्वेश्वर प्रभु को अपने कंठसिंहासन में धारण करने वाले अड़तालीसवें आचार्य रूप में श्री "श्रीजी" श्रीराधासर्वेश्वरशरण देवाचार्य जी महाराज​ ​ के नाम से प्रतिष्ठित हुये। 


आपश्री ने अपने आचार्यत्व में धर्मपालन तथा आचार निष्ठा की जो पराकाष्ठा दिखलाई हैं वह आज आचार्य की रहनी करनी के एकमात्र उदहारण के रूप में प्रस्तुत की जाती हैं। 
आपश्री के इस अनिर्वचनिय जगद्गुरुत्व को आज पंचसप्तति (पच्चत्तर- 75) वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। आपश्री की शरणागति प्राप्त कर हम बद्ध जीव श्रीयुगल चरणों के चरणामृत पान के अधिकारी हो सके हैं यह आप ही का चमत्कार हैं अन्यथा हम जैसे जीवों का उद्धार किस विध संभव हैं।

जै जै आप की कृपा का वर्षण ही हमारे दग्ध हृदयों को शान्त करने वाला हैं, हमारे लिए अन्य कोई अवलम्ब नहीं।

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​​लेख में प्रयुक्त संस्कृत श्लोक श्रीजी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ "भारत भारती वैभवं " से लिए गए हैं।

गुरुवार, 10 मई 2018

जो मनुष्य शास्त्रों का ​अनुसरण नहीं करते ​हैं ​उन ​अशुद्ध चित्त वालों को नष्ट ही जानों।

श्रीसर्वेश्वर श्रीकृष्ण गीताजी के तीसरे अध्याय के बत्तीसवें श्लोक में कहते हैं -
​जो मनुष्य मेरे इस मतमें दोषदृष्टि करते हुए ​ शास्त्रों का ​अनुसरण नहीं करते ​हैं ​उन ​अशुद्ध चित्त वालों सर्व कर्म से अनभिज्ञों को नष्ट ही जानों। ​!!३२!!

​तब अर्जुन का प्रश्न होता हैं - यदि ऐसी बात है जैसा की आप कहते हैं तो सब शास्त्रों से प्रतिपादित आपके मत के अनुकूल लोग क्यों नहीं चलते हैं ? शास्त्र की आज्ञा के प्रतिकूल क्यों चलते हैं ?

इस प्रश्न का उत्तर देते हैं :-
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।। 3.33।। ​

​इसका मंतव्य विस्तृत रूप में जगद्विजयी श्रीकेशवकाशमीरी भट्टदेवाचार्यजी स्पष्ट करते हुये अपने भाष्य में लिखतें हैं ​:-

​पूर्व जन्मों में किये गए कर्मों के गुणों के अनुकूल शुभ और अशुभ कर्मों के संस्कार से इस जन्म में प्रकट हुआ जो स्वभाव होता हैं उसी को प्रकृति कहते हैं। वेद, स्मृति, पुराण के शब्दार्थ का जानने वाला भी इस अपनी प्रकृति के अनुकूल ही चलता हैं। अर्थात जैसी उसकी प्रकृति है वैसा ही कर्म करता है, तो फिर मूर्खों के विषय में क्या कहना हैं ( कौन बात चलावे) ? वे तो अपनी प्रकृति के अनुकूल चलेंगे ही। इसलिए जीवमात्र अपनी प्रकृति के वश में है। ऐसी दशा में निग्रह अथवा शास्त्र की आज्ञा क्या कर सकती हैं ? भाव यह है कि अनादि विषय वासना से दूषित चित्त वालों की सर्व कामना त्याग पूर्वक मुझ में कर्म अर्पण करने वाली बुद्धि नहीं होती हैं।

​तब शंका हो सकती हैं कि , यदि सब कोई प्रकृति के वश में है और कोई उससे रहित अथवा स्वतंत्र नहीं हैं तो गुरु और शास्त्र का उपदेश व्यर्थ हुआ

इस शंका उत्तर भगवान् इस प्रकार देते हैं :-
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।3.34।।

उसे श्रीआचार्यचरण अपने भाष्य में समझाते हैं :-
आँख कान आदि ज्ञानेन्द्रियों का वाक् आदि कर्मेन्द्रियों का अपने अपने शब्दादि विषयों में और वचनादि कर्मों में रागद्वेष स्वभाव से ही सिद्ध है। अर्थात अपने अनुकूल कोमल मीठे आदि वस्तुओं में राग वा प्रेम और अपने प्रतिकूल कठिन आदि वस्तुओं से द्वेष वा क्रोध स्वभाव से ही अर्थात प्राचीन वासना के अनुसार सबको होता हैं। गुरु और शास्त्र का उपदेश यही हैं कि इन रागद्वेषों के वश में मनुष्य को नहीं होना चाहिए। क्योंकि ये रागद्वेष, सर्वस्व हरण करने वाले चोर के ऐसा, मुमुक्षु पथिक को भ्रष्ट जान, भक्तिरूप मोक्ष के मार्ग से गिराते हैं, और विषय प्राप्ति साधन रूप बुरे रास्ते में ले जाकर के और उसमें आसक्ति पैदा करके मोक्ष के साधन रूप सर्वस्व का हरण करते हैं। जिस प्रकार राज सैनिक राह चलने वाले को चोर के वश में देख उसको मुक्त कराकर सही मार्ग बताते हैं, उसी प्रकार शास्त्र और आचार्य का उपदेश मोक्षार्थी को राग-द्वेष से हटाकर सर्वेश्वराधन रुपी मार्ग में लगता हैं। इसलिए गुरु और शास्त्र का उपदेश व्यर्थ नहीं हैं। ​

​तब शंका हो जाये की किसी भी व्यक्ति से रागद्वेष नहीं करना इस आज्ञा के परिपालनार्थ युद्धादि कर्म एवं कर्तव्य नियत कर्म आदि क्यों किये जाएँ ? 
ऐसी शंका के निवारणार्थ ​भगवान् कहते हैं :-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।। 3.35।। ​

​भाष्य :- 
अपने वर्णाश्रम का शास्त्र विहित धर्म कर्म गुण वाला होने पर अथवा उसका सांगोपांग आचरण न बनने पर भी पूर्ण रूप से और सुचारु रीति से प्रतिपालित दूसरे वर्णों के विहित धर्म से अधिक श्रेष्ठ है। इसलिए अपने धर्मों में स्थित रहकर मरना भी दूसरे धर्म में रहकर जीने से श्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि दूसरे का धर्म भय देने वाला है क्योंकि दूसरे के धर्म में रुचि, पाप ही के समान नरक में पहुँचाने वाली है। शास्त्र भी कहता है :-
"पर्युदस्तो हि यो यस्माच्छास्त्रीयादपिकर्मणः।। 
​न स तत्राधिकारी स्याद्दानादौ दीक्षितो यथा ​ ।। "
​अर्थात जैसे जो पुरुष शास्त्रसम्मत कर्म से हट जाता है वह दीक्षित भी हो तो भी दानादि किसी भी कर्म में अधिकारी नहीं हो सकता। ​

रविवार, 1 अप्रैल 2018

॥ श्रीमत्सुदर्शनचक्रावतारभगवन्निम्बार्कप्रणीता वेदान्तदशश्लोकी

॥ वेदान्तदशश्लोकी ॥

ज्ञानस्वरूपञ्च हरेरधीनं शरीरसंयोगवियोगयोग्यम् ।
अणुं हि जीवं प्रतिदेहभिन्नं ज्ञातृत्ववन्तं यदनन्तमाहुः ॥ १॥

जीव ज्ञान स्वरूप हैं और हरि के अधीन हैं। यह शरीर के संयोग और वियोग के योग्य हैं। यह अणु परिमाण वाला हैं। प्रत्येक देह में भिन्न और ज्ञाता जीव को श्रुतियाँ तथा महर्षिजन अनन्त कहते हैं।

जीव ज्ञान स्वरूप हैं। ज्ञान स्वाभाविक चैतन्य, नित्य एवं स्वयं ज्योति हैं। जिस प्रकार लवण बाहर व भीतर से रसमय हैं उसी प्रकार यह ज्ञान भी सब ओर से हैं। जैसे जलमय भी समुद्र जल का आधार हैं, वैसे ही जीव ज्ञान का आश्रय हैं। अतः यह "अहम" के अर्थ के रूप में ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता भी हैं। ज्ञान धर्म हैं। ज्ञात धर्मी हैं। धर्म और धर्मी का अविनाभाव संबंध होता हैं। जिस प्रकार सूर्यप्रभा सूर्य से पृथक नहीं रह सकती, उसी प्रकार धर्म व धर्मिरूप ज्ञानत्व व ज्ञातृत्व का भी अविनाभाव संबंध हैं। ज्ञाता ज्ञान से प्रकाशित होता हैं। देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और प्राण से विलक्षण यह जीव श्रीहरि के अधीन हैं। अतः सभी क्रियाकलापों में परतंत्र हैं। परिमाण में अणु अतीन्द्रिय, शरीर के साथ संयोग व वियोग के योग्य, प्रतिदेह में भिन्न और अनन्त जीव हैं। ऐसा वेदान्त वाक्य व महर्षिजन उपदेश करते हैं।

॥ श्रीमत्सुदर्शनचक्रावतारभगवन्निम्बार्कप्रणीता
वेदान्तदशश्लोकी - प्रथम श्लोक ॥