धर्म के विषय में दो प्रकार की मान्यता प्रचलित है --
पहली मान्यता की स्थापना\उद्घाटना, प्रसार भारत से हुआ कि ----- सृष्ठी का कोई भी तत्व धर्म रहित नहीं है.
'धर्म' शब्द की उत्पत्ति 'धृ' धातु से हुयी है, जिसका अर्थ धारण और पोषण करना है. पदार्थ के धारक और पोषक तत्व को धर्म कहते है. इसका अभिप्राय यह है कि जिन तत्वों से पदार्थ बनता है वही तत्व उस पदार्थ का धर्म है. सृष्ठी का कोई भी तत्व धर्म रहित नहीं हो सकता है ............. जैसे अग्नि का धर्म ताप और जलाना है, जल का धर्म शीतलता और नमी है, सूर्य का धर्म प्रकाश आदि है.
भारतीय संस्कृति का अवचेतन "मनु-स्मृति" के आश्रय से संचालित होता है, स्वयं उसमें भी मानव के धारणीय स्वाभाविक धर्म को इंगित करते हुए कहा गया है------
इन दस मानव कर्तव्यों को धर्म घोषित करते हुए किसी भी -उपास्य, उपासना-पद्दति की चर्चा तक नहीं की गयी है.
धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।
इसी तरह अन्यान्य भारतीय ग्रंथों में भी यही बात दोहराई गयी है. -----
धर्मो यो दयायुक्तः सर्वप्राणिहितप्रदः । स एवोत्तारेण शक्तो भवाम्भोधेः सुदुस्तरात् ॥ जो दयायुक्त और सब प्राणियों का हित करनेवाला हो वही धर्म है । वैसा धर्म ही सुदुस्तर भवसागर से पार ले जाने में शक्तिमान है |
नोपकारात् परो धर्मो नापकारादधं परम्।
उपकार जैसा दूसरा कोई धर्म नहीं; अपकार जैसा दूसरा पाप नहीं
वैदिक साहित्य में सर्वत्र भूत-दया, प्राणिमात्र को स्वजन मानकर दया, सेवा, सात्विकता आदि गुणों से परिपूर्ण जीवन जीने की शिक्षा दी गयी है. प्राणिमात्र में समभाव को धर्म बताया गया है.
अयं निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
(यह् अपना है और यह पराया है ऐसी गणना छोटे दिल वाले लोग करते हैं । उदार हृदय वाले लोगों का तो पृथ्वी ही परिवार है।)वेद का ऋषि समस्त जीव-जगत की मंगल कामना कर्ता है ना कि सिर्फ वेद अनुगामी की.
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।
(सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें, और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े ।) सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।
भारतीय लोक-मानस में प्रतिष्ठित रामचरित मानस में भी धर्म के लिए निम्न कथन आयें है----
धरमु न दूसर सत्य समाना , आगम निगम पुराण बखाना (२-९५-५)
सत्य के सामान कोई धर्म नहीं, सत्य धर्म है .
धर्म की दया सरिस हरिजाना (७-११२-१०)
दया के सामान कोई धर्म नहीं है .
"परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई"
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा , पर निंदा सम अघ न गरीसा (७-१२१-२२)
यहाँ भी किसी देवी-देवता या पूजा विधान कि गंध नहीं है. अर्थात सिद्ध है कि भारतीय संस्कृति में उपासना-विधान को धर्म के नाम से संबोधित नहीं किया गया है. धर्म तो सृष्ठी के प्रत्येक तत्त्व के साथ स्वाभाविक कर्म के रूप में जुडा हुआ है. धर्म उद्दात और असीम है.
भारत का धर्म अंध आस्था नहीं है. इसका विकास वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही हुआ है. धर्म की शिक्षा का तात्पर्य यहां कर्मकाण्ड,पूजापाठ की विधि रटाना नहीं,बल्कि धर्म का तात्पर्य स्वयं का तथा स्वयं के स्वार्थ का निश्रेयस और राष्ट्र का अभ्युदय है.
जबकी धर्म की दूसरी मान्यता कि स्थापना, प्रचलन शेष विश्व में क्रमशः हुआ है, और इसे धर्म के स्थान पर उपासना-पद्दति\पंथ\सम्प्रदाय\रि
यूँ तो पश्चिमी विचारको ने रिलिजन को परिभाषित करने की कोशिश की है ,पर मैक्समूलर ने सभी दार्शनिको की परिभाषाओं को नकारते हुए 1878 में "रिलिजन की उत्पत्ति और विकास " विषय पे भाषण देते हुए रिलिजन की परिभाषा इस तरह दी है ---
"रिलिजन मस्तिष्क की एक मूल शक्ति है जो तर्क और अनुभूति के निरपेक्ष अन्नंत विभिन्न रूपों में अनुभव करने की योग्यता प्रदान करती है". यहाँ मैक्समूलर ने कल्पना की है की ईश्वर जैसी कोई सत्ता है जो असीम है,अनन्त है. इस से तो यह लगता है की मैक्समूलर यहाँ आस्तिकवाद की परिभाषा दे रहा है .
असल बात तो यह लगती है की विश्व में दो ही रिलिजन है, एक आस्तिकवाद और दूसरा नास्तिकवाद . आस्तिक ईश्वर की सत्ता में यकीन रखता है और नास्तिकवाद ईश्वर को चाहे जिस नाम से पुकारो, उसके अस्तित्व को ही नकारता है .
इस तरह स्पष्ट है की आस्तिकता और धर्म का अर्थ पर्याप्त भिन्नता लिए हुए है.
धर्म का नाम लेकर जितने भी उत्पात होतें है वस्तुतः वे उपासना पद्दति की भिन्नत के आधार पर होतें है .................... जबकि धर्म नहीं हो तो लड़ाई-झगडे कि तो दूर रही सृष्ठी ही नहीं हो .......... और अगर ब्राह्मांड के सारे तत्व अपना अपना धर्म छोड़ दे तो ??????
अब तो बताइए आप किसे धर्म मानते हैं ?