श्रीसर्वेश्वर श्रीकृष्ण गीताजी के तीसरे अध्याय के बत्तीसवें श्लोक में कहते हैं -
जो मनुष्य मेरे इस मतमें दोषदृष्टि करते हुए शास्त्रों का अनुसरण नहीं करते हैं उन अशुद्ध चित्त वालों सर्व कर्म से अनभिज्ञों को नष्ट ही जानों। !!३२!!
तब अर्जुन का प्रश्न होता हैं - यदि ऐसी बात है जैसा की आप कहते हैं तो सब शास्त्रों से प्रतिपादित आपके मत के अनुकूल लोग क्यों नहीं चलते हैं ? शास्त्र की आज्ञा के प्रतिकूल क्यों चलते हैं ?
इस प्रश्न का उत्तर देते हैं :-
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।। 3.33।।
इसका मंतव्य विस्तृत रूप में जगद्विजयी श्रीकेशवकाशमीरी भट्टदेवाचार्यजी स्पष्ट करते हुये अपने भाष्य में लिखतें हैं :-
पूर्व जन्मों में किये गए कर्मों के गुणों के अनुकूल शुभ और अशुभ कर्मों के संस्कार से इस जन्म में प्रकट हुआ जो स्वभाव होता हैं उसी को प्रकृति कहते हैं। वेद, स्मृति, पुराण के शब्दार्थ का जानने वाला भी इस अपनी प्रकृति के अनुकूल ही चलता हैं। अर्थात जैसी उसकी प्रकृति है वैसा ही कर्म करता है, तो फिर मूर्खों के विषय में क्या कहना हैं ( कौन बात चलावे) ? वे तो अपनी प्रकृति के अनुकूल चलेंगे ही। इसलिए जीवमात्र अपनी प्रकृति के वश में है। ऐसी दशा में निग्रह अथवा शास्त्र की आज्ञा क्या कर सकती हैं ? भाव यह है कि अनादि विषय वासना से दूषित चित्त वालों की सर्व कामना त्याग पूर्वक मुझ में कर्म अर्पण करने वाली बुद्धि नहीं होती हैं।
तब शंका हो सकती हैं कि , यदि सब कोई प्रकृति के वश में है और कोई उससे रहित अथवा स्वतंत्र नहीं हैं तो गुरु और शास्त्र का उपदेश व्यर्थ हुआ
इस शंका उत्तर भगवान् इस प्रकार देते हैं :-
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।3.34।।
उसे श्रीआचार्यचरण अपने भाष्य में समझाते हैं :-
आँख कान आदि ज्ञानेन्द्रियों का वाक् आदि कर्मेन्द्रियों का अपने अपने शब्दादि विषयों में और वचनादि कर्मों में रागद्वेष स्वभाव से ही सिद्ध है। अर्थात अपने अनुकूल कोमल मीठे आदि वस्तुओं में राग वा प्रेम और अपने प्रतिकूल कठिन आदि वस्तुओं से द्वेष वा क्रोध स्वभाव से ही अर्थात प्राचीन वासना के अनुसार सबको होता हैं। गुरु और शास्त्र का उपदेश यही हैं कि इन रागद्वेषों के वश में मनुष्य को नहीं होना चाहिए। क्योंकि ये रागद्वेष, सर्वस्व हरण करने वाले चोर के ऐसा, मुमुक्षु पथिक को भ्रष्ट जान, भक्तिरूप मोक्ष के मार्ग से गिराते हैं, और विषय प्राप्ति साधन रूप बुरे रास्ते में ले जाकर के और उसमें आसक्ति पैदा करके मोक्ष के साधन रूप सर्वस्व का हरण करते हैं। जिस प्रकार राज सैनिक राह चलने वाले को चोर के वश में देख उसको मुक्त कराकर सही मार्ग बताते हैं, उसी प्रकार शास्त्र और आचार्य का उपदेश मोक्षार्थी को राग-द्वेष से हटाकर सर्वेश्वराधन रुपी मार्ग में लगता हैं। इसलिए गुरु और शास्त्र का उपदेश व्यर्थ नहीं हैं।
तब शंका हो जाये की किसी भी व्यक्ति से रागद्वेष नहीं करना इस आज्ञा के परिपालनार्थ युद्धादि कर्म एवं कर्तव्य नियत कर्म आदि क्यों किये जाएँ ?
ऐसी शंका के निवारणार्थ भगवान् कहते हैं :-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।। 3.35।।
भाष्य :-
अपने वर्णाश्रम का शास्त्र विहित धर्म कर्म गुण वाला होने पर अथवा उसका सांगोपांग आचरण न बनने पर भी पूर्ण रूप से और सुचारु रीति से प्रतिपालित दूसरे वर्णों के विहित धर्म से अधिक श्रेष्ठ है। इसलिए अपने धर्मों में स्थित रहकर मरना भी दूसरे धर्म में रहकर जीने से श्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि दूसरे का धर्म भय देने वाला है क्योंकि दूसरे के धर्म में रुचि, पाप ही के समान नरक में पहुँचाने वाली है। शास्त्र भी कहता है :-
"पर्युदस्तो हि यो यस्माच्छास्त्रीयादपिकर्मणः।।
न स तत्राधिकारी स्याद्दानादौ दीक्षितो यथा ।। "
अर्थात जैसे जो पुरुष शास्त्रसम्मत कर्म से हट जाता है वह दीक्षित भी हो तो भी दानादि किसी भी कर्म में अधिकारी नहीं हो सकता।
जो मनुष्य मेरे इस मतमें दोषदृष्टि करते हुए शास्त्रों का अनुसरण नहीं करते हैं उन अशुद्ध चित्त वालों सर्व कर्म से अनभिज्ञों को नष्ट ही जानों। !!३२!!
तब अर्जुन का प्रश्न होता हैं - यदि ऐसी बात है जैसा की आप कहते हैं तो सब शास्त्रों से प्रतिपादित आपके मत के अनुकूल लोग क्यों नहीं चलते हैं ? शास्त्र की आज्ञा के प्रतिकूल क्यों चलते हैं ?
इस प्रश्न का उत्तर देते हैं :-
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।। 3.33।।
इसका मंतव्य विस्तृत रूप में जगद्विजयी श्रीकेशवकाशमीरी भट्टदेवाचार्यजी स्पष्ट करते हुये अपने भाष्य में लिखतें हैं :-
पूर्व जन्मों में किये गए कर्मों के गुणों के अनुकूल शुभ और अशुभ कर्मों के संस्कार से इस जन्म में प्रकट हुआ जो स्वभाव होता हैं उसी को प्रकृति कहते हैं। वेद, स्मृति, पुराण के शब्दार्थ का जानने वाला भी इस अपनी प्रकृति के अनुकूल ही चलता हैं। अर्थात जैसी उसकी प्रकृति है वैसा ही कर्म करता है, तो फिर मूर्खों के विषय में क्या कहना हैं ( कौन बात चलावे) ? वे तो अपनी प्रकृति के अनुकूल चलेंगे ही। इसलिए जीवमात्र अपनी प्रकृति के वश में है। ऐसी दशा में निग्रह अथवा शास्त्र की आज्ञा क्या कर सकती हैं ? भाव यह है कि अनादि विषय वासना से दूषित चित्त वालों की सर्व कामना त्याग पूर्वक मुझ में कर्म अर्पण करने वाली बुद्धि नहीं होती हैं।
तब शंका हो सकती हैं कि , यदि सब कोई प्रकृति के वश में है और कोई उससे रहित अथवा स्वतंत्र नहीं हैं तो गुरु और शास्त्र का उपदेश व्यर्थ हुआ
इस शंका उत्तर भगवान् इस प्रकार देते हैं :-
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।3.34।।
उसे श्रीआचार्यचरण अपने भाष्य में समझाते हैं :-
आँख कान आदि ज्ञानेन्द्रियों का वाक् आदि कर्मेन्द्रियों का अपने अपने शब्दादि विषयों में और वचनादि कर्मों में रागद्वेष स्वभाव से ही सिद्ध है। अर्थात अपने अनुकूल कोमल मीठे आदि वस्तुओं में राग वा प्रेम और अपने प्रतिकूल कठिन आदि वस्तुओं से द्वेष वा क्रोध स्वभाव से ही अर्थात प्राचीन वासना के अनुसार सबको होता हैं। गुरु और शास्त्र का उपदेश यही हैं कि इन रागद्वेषों के वश में मनुष्य को नहीं होना चाहिए। क्योंकि ये रागद्वेष, सर्वस्व हरण करने वाले चोर के ऐसा, मुमुक्षु पथिक को भ्रष्ट जान, भक्तिरूप मोक्ष के मार्ग से गिराते हैं, और विषय प्राप्ति साधन रूप बुरे रास्ते में ले जाकर के और उसमें आसक्ति पैदा करके मोक्ष के साधन रूप सर्वस्व का हरण करते हैं। जिस प्रकार राज सैनिक राह चलने वाले को चोर के वश में देख उसको मुक्त कराकर सही मार्ग बताते हैं, उसी प्रकार शास्त्र और आचार्य का उपदेश मोक्षार्थी को राग-द्वेष से हटाकर सर्वेश्वराधन रुपी मार्ग में लगता हैं। इसलिए गुरु और शास्त्र का उपदेश व्यर्थ नहीं हैं।
तब शंका हो जाये की किसी भी व्यक्ति से रागद्वेष नहीं करना इस आज्ञा के परिपालनार्थ युद्धादि कर्म एवं कर्तव्य नियत कर्म आदि क्यों किये जाएँ ?
ऐसी शंका के निवारणार्थ भगवान् कहते हैं :-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।। 3.35।।
भाष्य :-
अपने वर्णाश्रम का शास्त्र विहित धर्म कर्म गुण वाला होने पर अथवा उसका सांगोपांग आचरण न बनने पर भी पूर्ण रूप से और सुचारु रीति से प्रतिपालित दूसरे वर्णों के विहित धर्म से अधिक श्रेष्ठ है। इसलिए अपने धर्मों में स्थित रहकर मरना भी दूसरे धर्म में रहकर जीने से श्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि दूसरे का धर्म भय देने वाला है क्योंकि दूसरे के धर्म में रुचि, पाप ही के समान नरक में पहुँचाने वाली है। शास्त्र भी कहता है :-
"पर्युदस्तो हि यो यस्माच्छास्त्रीयादपिकर्मणः।।
न स तत्राधिकारी स्याद्दानादौ दीक्षितो यथा ।। "
अर्थात जैसे जो पुरुष शास्त्रसम्मत कर्म से हट जाता है वह दीक्षित भी हो तो भी दानादि किसी भी कर्म में अधिकारी नहीं हो सकता।