शनिवार, 24 जुलाई 2010

"एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति " "अल्लाह एक है उसके सिवा और कोई नहीं है" क्या फर्क पड़ता है ---------- अमित शर्मा

अरबी सभ्यता जब धर्म से दूर होकर जंगलीपने की हद तक जा पहुंची तब श्रीमोहम्मदसाहबजी ने इस्लाम के माध्यम से अरबी सभ्यता को धर्मानुकुल बनाने की कोशिश की थी.  पर श्रीमोहम्मदसाहबजी के स्वर्गगमन के बाद उनके अनुयायियों ने अपने देश की सभ्यता की प्रीत में इस्लाम को ही अपनी सभ्यता का दास बना लिया, अरबी सभ्यता लड़ाई झगडे को विशेष सम्मान देती है, इसी कारण इस्लाम के अनुयायी बन जाने पर कई बार टालें जाने पर भी इस्लाम में युद्ध का प्रवेश हो गया,
श्रीमोहम्मदसाहबजी के बाद जब इस्लाम अरबी सभ्यता का अनुयायी हो गया, तब जेहाद ही उन नए इस्लामवादियों द्वारा विशेष कर्त्तव्य मान लिया गया. इसी विश्वास के के चलते अरबो ने इरान और अफगानिस्थान को अपनी धुन में मुस्लिम बना लेने के बाद भारत पर भी धावा बोल दिया, अब अरबो को भारत में शारीरिक जीत तो मिल गयी पर धार्मिक रूप में नए इस्लाम की पुराने इस्लाम से टक्कर हुयी. पुराने इस्लाम के वेदानुकुल सिधान्तो के सामने नए इस्लाम को हार माननी पड़ी. (हजारों सालो तक सैंकड़ों विजेताओं ने चाहे वह शक, हूण, मंगोल, हो या अरबी सबने भारतीय संस्कृति पर घातक से घातक वार किये पर इसके जड़ों को काटते-काटते इनकी तलवारे भोंटी हो गयी, पर भारतीय जीवन-धारा अजस्र प्रवाहित रही.  अगर भारतीय संस्कृति इतनी ही ख़राब है, हिन्दूओं के अचार विचार इतने ही सड़ें हुयें है तो, अब तक हिन्दू जाती मर क्यों नहीं गयी ? )
वह दीने हिजाजीका बेबाक बेडा
निशां जिसका अक्क्साए आलममें पहुंचा
मजाहम हुआ कोई खतरा जिसका
न अम्मआन में ठिटका न कुल्जममें झिझका
किये पै सिपर जिसने सातों समंदर
वह डूबा दहानेमें गंगा के आकर
(श्री मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली--  मुसदिये हाली )
अरबी सभ्यता भारत में आकर यहाँ के रंग में घुलने मिलने लगा था, इस्लाम पर भारतीय संस्कृति का इतना प्रबल प्रभाव पड़ा था की आम जनता के आचार विचार में कोई विशेष भेद नहीं रह गया था. यदि मुस्लिम विद्वान् उलेमा वर्ग द्वारा  भी बिना किसी भेद भाव के अरबी फ़ारसी की जगह भारतीय भाषा को इस्लामी विचार का साधन बना लिया जाता और सिर्फ अरबी संस्कृति को ही इस्लाम न मान लिया जाता तो कम से कम भारतीय इतिहास के माथे पर हिन्दू मुस्लिम मारकाट का कलंक न लगा होता. क्योंकि वास्तव में दोनों एक ही तो हैं.
बस मौलवियों के इन्ही सिधान्तों और बर्तावों ने हिन्दू मुसलमानों को पराया बनाने का काम किया था ,जिसका भयानक परिणाम आज सबके सामने है. जबकि पवित्र कुरआन में किसीसे भी विरोध नहीं है.
"केवल अल्लाह ही पूजनीय है, और सब अच्छे नाम उसी के लिए है"
क्या राम उसका नाम नहीं हो सकता (सर्वर्त्र रमन्ति इति राम - जो सभी के लिए रमणीय है वह राम है)
लोग एकता की बात तो खूब करतें है. पर उस एकता में भी स्वधर्म छोड़ने की बातें है. एकता की बात करते है तो एक ही होइए, उस एक होने में भी यह आग्रह क्यों करते है की अरबी संस्कृति से ही उस की इबादत की जा सकती है, क्या फर्क पड़ता है जो तोहीद "अल्लाह एक है उसके सिवा और कोई नहीं है", कहने से पूरी होती है
वही अद्वैतवाद "एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति " कहने में भी पूरा होता है.

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

एक काव्य-संवाद सा बन पड़ा है. सोचा आप लोगों के साथ बाँट लूँ .-------- अमित शर्मा

(इसमें जो लाल रंग वाली कविता है वह प्रतुलजी की है, और जो नीले रंग से है वोह मेरी उनकी पोस्ट पर की गयी टिपण्णी है. बातों ही बातों में एक काव्य-संवाद सा बन पड़ा है. सोचा आप लोगों के साथ बाँट लूँ .)

कवि अपनी बी.एड. परीक्षा की तैयारी के कारण काफी दिनों तक अपनी प्रियतमा "मसि"(कलम) से दूर रहा, और जब मिला तो अपने मिलन हर्ष के भाव कुछ यूँ व्यक्त किये -----------------

अरी!
अकेली देख तुम्हें
पाणि-पल्लव हिलने लगते.
उर-तरु से शब्दों के फल
आ-आकर के गिरने लगते.

वधु-नवेली बनकर मेरे

पास आप आती सकुचा.
पहले भय, लज्जा फिर मुख पर
मिलन-भाव सकुचा पहुँचा.

मसी-सहेली!

प्रेम किया करता है कवि तुमसे इतना.
नहीं एक पल रह सकता
तेरा आलिंगन किये बिना.


पर मसि सहेली तो विरह-ज्वाला से दग्ध हुयी बैठी थी, और इस बीच उसने ना जाने क्या क्या सोच लिया था. माननी नायिका का मान मुखर हो उठा और उपालंभ देने लगी-----------
 

एहो प्रियवर! रुष्ट हूँ तुम से जाओ
बितायी कहाँ इतनी घड़ियाँ बतलाओ

निज पाणी-पल्लव की द्रोण-पुटिका में भरकर
उर-तरु के मधुर फल का सार किसे पिलाया

मैं वधु-नवेली मिलन आस में सिकुड़ी सकुचाई
भय मन में क्या उनको नगरवधू कोई भायी

भय शमन करो आस पूर्ण करो करो त्रास निर्वाण
कवि आलिंगन मसि का करो हो अमित निर्माण


कवि बापुरा रंक समान अपनी प्रियतमा से, अपने विरह के कारण बताते हुए मसि सहेली के दग्ध मन को अपनी शीतल वाणी फुहार से शमित करने का उपक्रम करते हुए बोला----------

अरी! रूठ मत मुझसे प्यारी.

भाव नहीं अपना व्यभिचारी.
तुझको ही हर कलम-वपु में
पाया मैंने है संचारी.

एक बेड* शिक्षा-व्यापारी

उनकी परि-इच्छाएँ** कुँवारी
उनके मोह जाल में मैंने
समय दिया था बारी-बारी.

लेकिन तेरी भय बीमारी

अविश्वास करती है भारी.
ह्रदय-वृक्ष के शब्द-फलों का
सार छिपाया सबसे प्यारी.

तुम मेरी स्थूल अर्चना

मैं तेरा हूँ शब्द-पुजारी.
यदा-कदा टंकण से भी मैं
तुझको पूजा करता प्यारी.


कवि के शब्दों से मसि सहेली कुछ नर्म हुयी, पर फिर भी उसकी रोष-अग्नि को शांत होने में समय लगा, पर जब शांत हुयी तो कवि से एकाकार हो गई------------------

अहो! क्या सोचा था क्या पाया
संकल्प एक भी पूरा ना हो पाया

नियति की मारी मैं, चाहा था एकनिष्ठ
पर हाय विधाता तुम भी ना बने विशिष्ठ

प्रथम मिलन बेला में तुमने जब थामा था
नारायण रामचंद्र  मान घनानंद पाया था

पर दोष नहीं तुम्हारा  द्रौपदी सा भाग हमारा

जहाँ इच्छाएं उलूपी,सुभद्रा सम होती सह्दारा

कवि ना हो दुखी यह वितृष्णा नहीं मात्र तृष्णा है
अर्जुन सम सन्नद्ध रहो महारण में राजी कृष्णा है

जो इच्छा-सुभद्रा आदि संग ना होता परिणय तुम्हारा
किस विध से होता  भरत - सम्राट सम उत्कर्ष हमारा

तुम प्रतुलकवि,  तुम विशिष्ठमनी, हम-तुम एकाकार
अमित तो अर्चक कविकलम भारती का करे जयकार 


पर बड़ा ही अजीब है प्रेमी और प्रेमिका का आपसी मान मनोव्वल का दृश्य. नायिका जब अपना रोष शांत कर सामान्य होने लगती है तब तक प्रेमीजी का, पौरुषीय दर्प सर उठा चुका होता है. और फिर नायक गर्म फुफकार अपनी प्रेयसी पर छोड़ने लगता है--------------


ह्रदय के कोमल भावों पर

लगाता हूँ फिर से प्रतिबंध.
कंठ में बाँध रहा हूँ पाश
कहीं न फैले नेह की गंध.

किया जब तक तेरा गुणगान

बढ़ाया तुमने मेरा मान.
उलाहना क्यों देती  हो अब
किया करती  हो क्यों अपमान?

आपसे भी सुन्दर गुणवान

किया करते मुझसे पहचान
दूर कैसे कर दूँ उनको
गाऊँ न क्यों उनका गुणगान?

आप ही न केवल बलवान

रूप, गुण-रत्नों की हो खान.
किया करता सबका सम्मान
सभी लगती  मुझको भगवान्.

पर नायिका ने तो अपने आपको पूर्ण संयत का लिया था, इसलिए अपने अनन्य समर्पण को वक्त कर दिया ----------------

 
जब तक नायिका करती मान व्यवहार
नायक भी रिझाने को हर संभव तैयार

पर अद्भुत मान लीला होत है बीच पिय प्यारी

ज्यो ज्यो नर्म होत कामिनी कान्त होत भारी

मानिनी तो मान तज्यो सर्वस कियो एकाकार

तौ कंत पर गुमान चड़त है बरजत बारम्बार

प्रियवर यह तो मान हो श्रृंगार नायिका को है

याही निज अपमान ना मानो नेह हमारो है

भंत यह पंथ है क्लिष्ट बड़ो, तौ बिन ना गुजारो है

अमित सखियन संग रहूँ पड़ी जो साथ तुम्हारो है 




शनिवार, 3 जुलाई 2010

हम लोगों ने निर्गुण- निराकार शब्दों को हाउ बना डाला है ---- अमित शर्मा

लोगों में सगुण और निर्गुण उपासना के तात्पर्य को लेकर बड़ा मतभेद है। एक सामान्य सी परिभाषा लोगों के दिमाग में फिक्स है की परमात्मा को निर्गुण मानकर की जाने वाली उपासना निर्गुण उपासना है, और साकार मानकर की जाने वाली उपासना सगुन उपासना। पर शायद बारीकी से सोचा जाये तो सगुन-निर्गुण का मतलब कुछ  और ही है। यदि उपास्य में ज्ञान,बाल,क्रिया,शक्ति,रूप  आदि कुछ माना ही ना जाये तो फिर उसकी उपासना की कोई आवश्यकता ही नहीं है। ऐसी वस्तु का क्या ध्यान किया जाये ? ऐसी शुन्य-कल्प निर्गुण वस्तु का तो निर्देशन करना भी कठिन है। हकीकत में तो ऐसा कोई तत्व हो ही नहीं सकता जिसमें रूप,गुण आदि ना हो।  हम लोगों ने निर्गुण- निराकार  शब्दों  को हाउ बना डाला है, और इन शब्दों के ऐसे कल्पित अर्थ कर डाले है की जनसामान्य की तो बुद्धि ही चकराने लगती है।  इन शब्दों के वास्तविक अर्थ क्या है, इस बारे में तो शास्त्रों का ही सहारा लिया जाना चहिये।

निर् + गुण और निर् + आकार आदि समस्त पद है। व्याकरण शास्त्र के आचार्यो ने ऐसा नियम बताया है की ------ निर् आदि अव्यवों का पंचमी विभ्क्त्यंती शब्दों के साथ क्रांत (अतिक्रमण) आदि अर्थों में समास होता है।


इनका विग्रह (विश्लेषण) इस प्रकार किया जाता है-------  निर्गतो गुणेभ्यो यः स निर्गुणः, निर्गत आकारेभ्यो यः स निराकारः ।
मतलब जो सारे गुणों का अतिक्रमण कर जाये (प्रकृति के सत्व, रज, तम तीनो गुणों से लिप्त ना हो ) वही निर्गुण कहलाता है। इसी तरह पृथ्वी आदि समस्त आकारों को जो अतिक्रमण करने की सामर्थ्य रखता हो, अर्थात जिसका आकार अखिल ब्रह्माण्ड से भी बड़ा हो, वही निराकार कहलाता है। निर्विशेष, निर्विकल्प आदि दूसरे  शब्दों का भी इसी तरह अर्थ होता है।

व्याकरण शास्त्र के इन शब्दों के उपर्युक्त अर्थ के समर्थक उदहारण भी है। जैसे-------- "
निस्त्रिंश: निर्गत: त्रिन्शेम्योsगुलिभ्यो यः स निस्त्रिंश:" अर्थात तीस अंगुल से बड़े खड्ग (तलवार) को निस्त्रिंश कहना चहिये।

इसी तरह वेदादि शास्त्रों में भी परमात्मा का आकार भी समस्त आकारों से बड़ा बताया गया है जिसके एक एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड स्थित है।

"ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।"

"पगु बिन चलै, सुनै बिन काना....कर बिन करम करै बिधि नाना"!!   का अर्थ भी इन्ही अर्थों में है.................
शास्त्रीय प्रमाणों से जब अर्थ का सामंजस्य हो जाता है, फिर ब्रह्म  को सर्वथा गुण रहित और आकार रहित कैसे माना जाये ????