किसी चीज को समझने के लिए काफी अन्दर जाना पड़ता है. और ना समझना हो तो अपने खोखले दिमाग से कुछ भी कहा जा सकता है किसी भी धर्मग्रन्थ की,उपासना पद्दति की बुराई की जा सकती है. क्योंकि बुद्धि तो हमारी है ना.
कुछ लोग वेद और उनके विस्तार रूप अन्य ग्रंथों को अपनी ओछी मानसिकता से ना समझ पाने के कारण उटपटांग लिखे जा रहे है. बल्कि यह माना जाना चहिये की ऐसा वे जान बूझ कर कर रहे है. क्योंकि जैसा की शास्त्रों में ही बताया गया है की इस सारे संसार में दो ही प्रकार के मानव है पहले सज्जन जो की हर एक प्राणी की कुशलता की कामना रखते हुए अपना जीवन जीते है और दूसरे दुर्जन जो की येन-केन प्रकरेण मानवता का अहित करने की जुगत में लगे रहते है .
अब इनका क्या किया जा सकता है, की ये पूरे स्तरों को बिना समझे हर स्तर को अलग-अलग करके उसका अपने ही नजरिये से आंकलन करते है . जब किसी चीज को आप ठीक से समझ ही नहीं पा रहे हो तो क्या मतलब . और शायद इनका मकसद भी नहीं है समझना . क्योंकि अगर समझना ही चाहते तो फिर इतना गलीचपना भी ना दिखाते .
ज्यादा नहीं पर इतना तो समझने की कोशिश हम कर ही सकते है की वैदिक धर्म-ग्रंथों में जीवन के हर प्रकरण को, काल के हर प्रकरण को अलग -अलग विभाजित करते हुए उनका तारतम्य बनाया गया है .
इसके तीन मुख्य विभाग हम देख सकते है
१. दार्शनिक भाग - इसमें मानव धर्म का सारा विषय अर्थात मूलतत्व , उद्देश्य और पारमार्थिक लाभ के उपाय निहित है.
२. पौराणिक भाग - यह स्थूल उधारनो से दार्शनिक भाग को स्पष्ट करता है . इसीमें मनुष्यों के दैनिक क्रय-कलापों की विवेचना के लिए महापुरषों के जीवन को उधारण द्वारा समझाया गया है. इसी भाग के अंतर्गत सारी स्मृतियाँ, पुराण आदि आते है .
३.अनुष्ठानिक भाग - यह धर्म का स्थूल भाग है. इसमें पूजा-पद्दति , अचार, जीवन चर्या, अनुष्ठान-पद्दति आदि आते है .
जीवन के कर्त्तव्य-अकर्तव्य के निर्धारण के लिए समय विशेष अपेक्षित है. धर्मशास्त्रीय पद्दति के अनुसार "भविष्य में धर्म का प्रतिपादन कठिन होगा" इस तथ्य को समझकर आचार्यों ने कुछ बातें दूसरे और तीसरे भाग को चार भागों में निरुपित किया है . तप, ज्ञान, यज्ञ, और दान .
जिस तरह कर्त्तव्य-अकर्तव्य के चार भाग है. उसी तरह पूर्ण वैज्ञानिक रीति से सृष्टि क्रम के भी चार विभाग चार युगों के रूप में किये गए है . सत, त्रेता, द्वापर, और कलियुग.
प्रत्येक पदार्थ के ह्रास की एक सीमा होती है, उस सीमा पर पहुँच कर वह परिवर्तित होता है. और वह वापस अपने मूल रूप में आ जाता है. इसी तरह इस संसार के पतन की भी एक सीमा है उस सीमा पर पहुँच कर, वापस आदियुग क्रम चलता है.
सतयुग - आदि युग को शास्त्रों ने सतयुग कहा है.इस समय सत्वगुण सृष्टि में प्रधान था . मनुष्य में त्याग,तप,एकाग्रता,सत्य, आदि स्वाभाविक गुण थे. मानव परम ज्ञानी था (आज का भौतिकता प्रधान ज्ञान नहीं) . मानव में कोई दुर्गुण ना होने से और तपस्या में ही स्वाभाविक रूचि होने से वेद का दार्शनिक भाग ही प्रचलित था दूसरे विधि-निषेधों की आवश्यकता नहीं थी. वेदत्रयी अनादी होकर भी वेद के तप और ज्ञानकाण्ड ही व्यहवार में आते थे .
त्रेतायुग - प्रकति के दूसरे तत्वों ने भी अपना काम करना शुरू कर दिया था. और मनुष्य रजोगुण प्रधान होने लगा था. मनोबल कुछ कम हुआ तप की शक्ति कम हुयी तो संकल्प सिद्धि के लिए यज्ञ की आवश्यकता हुयी. रजोगुण के प्रभाव से जनसँख्या भी बढ़ने लगी. मनुष्यों में प्रकृति के थपेड़े सहने की शक्ति नहीं बची थी. सो नगर-गाँव बसे संग्रह की वृत्ति भी बढ़ी. समाज बने समाज बनने पर नियम भी बनाये गए .
द्वापरयुग - द्वापर शब्द का अर्थ है संदेह. तमोगुण का प्रवेश हुआ मनुष्य में संदेह ,अविश्वास का बीज आ बसा . मनष्य में शारीरिक सुख की वासना आ गयी. भोग-भौतिकता बड़ी. जनसँख्या भी बढ़ी. परिणाम लडाई-झगडे भी बढे .
इसलिए द्वापर में शास्त्रकारों ने नियम कठोर किये. मनुष्य में श्रधा बाकी थी इसलिए भगवद -आराधना का पूजा विधान प्रचलित हुआ.
कलियुग - कलिका अर्थ है कलह --युद्ध . इस युग के लिए यह नाम कितना सटीक है. सबके सामने है. कलह सिर्फ स्वार्थ से प्रेरित है. धर्म ,सिधांत,जाती,देश,समाज,आदर्श ये सब बहाने बनाये जाते है . आज मानव का मनोबल जिसके दम पे पिछले तीनो युगों के नियमों को व्यवहार में लाता था बिलकुल खत्म हो गया है . शास्त्रीय अचार-नियम गए, श्रधा-विशवास गए . न्याय अन्याय का तो प्रश्न ही उठ गया है .
किसका दोष है ??? युग प्रकृति का जहाँ स्वार्थ ही सबसे बड़ा लक्ष्य हो गया है .तो धर्मशास्त्रीय नियमों को किस तरह आदमी निभाने की सोच सकता है . दूरदर्शी ऋषियों ने कलियुग के इसी वातावरण को ध्यान में रखते हुए, सर्वजन कल्याण की भावना रखते हुए मन को ज्यादा से ज्यादा निर्मल रखने का उपदेश देते हुए दान और भगवान् नाम स्मरण को कलियुग का उपासनीय साधन बताया है .
दान भी अपनी सामर्थ्य हो तो आवश्यक है नहीं तो प्रत्येक प्राणी में उस सर्वव्यापी परमात्मा का दर्शन करते हुए उसके स्मरण की आज्ञा है. कोरे नाम स्मरण से काम नहीं चलता परहित की भावना रखते हुए सात्विक जीवन जीना मूल है .इसका मतलब यह नहीं है की इस युग में पुराने उपासना साधन या नियम निष्फल है. लेकिन सार्वजानिक रूप से यह व्यवहार आजके समाज में मुश्किल है. इसलिए उसी परम धर्म के निर्वाह के लिए जो की सर्वकल्याण की योजना से आत्मकल्याण का साधन करता है को प्राप्त करने के लिए .
शास्त्रों ने यथा शक्ति नियमों का पालन करना बताया है .
चार आश्रमों के निभाने की जहाँ तक बात है. आज भी सात्विकता और प्रेम भरा जीवन जिया जाता है . वहाँ बड़ा आसन है घर में रहते हुए ही. की पिता अपने आपको धीरे धीरे पीछे करते हुए अपनी औलाद को घर की सारी जिम्मेदारी सौंप देता है . शास्त्रों में ग्रहस्त आश्रम को ही सर्वश्रेष्ट बताया है .
अब अधूरी बात का पल्ला पकडे रहने वाले क्या समझेंगे . उनका तो राम ही मालिक है .
ईश्वर प्रदत्त जीवन पद्दति सिर्फ और सिर्फ एक ही है प्राणिमात्र का कल्याण करते हुए उस परमात्मा का ध्यान करना .
अपने व्यवहार से हमसे ऐसा कोई काम नहीं हो जाये जिससे किसी जीव की आत्मा दुखे.
आज टाइम काफी कम है और पोस्ट भी काफी लम्बी हो गयी है, आगे की बात कल करेंगे की वेद या दूसरे शास्त्रों का कैसे मनमाना अर्थ करके दुष्ट उनमे मॉस भक्षण जैसे आरोप लगा रहे है .