अयं निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
(यह् अपना है और यह पराया है ऐसी गणना छोटे दिल वाले लोग करते हैं । उदार हृदय वाले लोगों का तो पृथ्वी ही परिवार है।)"वसुधैव कुटुम्बकम" भारतीय चिंतन को स्पष्ट करता है.संपूर्ण विश्व हमारे लिए कुटुंब के सामान है.जब अंतर्मन में परिवार का भाव विकसित हो जाता है,तो हमारे लिए न तो कोई गैर होता है और ना ही हमें किसी से बैर रह पाता है.सब अपने है और हम सबके है.
ऋग्वेद में ऋषि पूछते है की कौन है,जो आपसे अलग है? हर व्यक्ति में परमात्मा का अंश और उसकी शक्ति विराजमानहै.इसलिए प्रत्येक प्राणी हमारे लिए आदरणीय है.यही अवधारणा भारतीय संस्कृति का आधार है.ऋषि कहते है 'आत्मवत सर्वभूतेषु"
यानि सभी प्राणियों आत्मवत देखें और व्यहवहार करें .
बृहद-आरण्यक में कहा है की "जो जीवात्मामें रहकर उसका नियमन कर्ता है,वह अंतर्यामी तेरा आत्मा है"
यह बात गीता में भी स्पष्ट है ---ईश्वरः सर्वभूतानाम हृद्देशे$र्जुन तिष्टति /
भ्राम्यन सर्व्भुतानी यंत्रारुड़ानी मायया //
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातनः /
पर जो परम्परा से ही सब जीवों को उस परब्रह्म से अलग मानते-जानते हों उन दुष्टों से कैसे आशा की जाये की वे सारे संसार को जो जैसा है के रूप में ही स्वीकारते हुए "वसुधैव कुटुम्बकम" की उद्दात भावना रखेंगे. जो मनुष्य सब प्राणियों में परमात्मा को देखता है, वह किसी से घृणा नहीं कर सकता .समाज में दुराव को हमारे ऋषियों ने कभी स्वीकार नहीं किया. इसलिए ऋषि वेद में आह्वान करते है की- हे मनुष्यों तुम सब आपस में मिलजुलकर रहो,आपस में हिलमिलकर रहो .वेद का ऋषि समस्त जीव-जगत की मंगल कामना कर्ता है ना कि सिर्फ वेद अनुगामी की.सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।
(सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें, और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े ।)
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत् ।।
अमित जी काफी दिनों से आपके ब्लॉग पड रहा हूँ , इतनी सी उम्र में आपका इतना विशाल आद्यां , और इतनी गहरी समझ देखकर मन आपके प्रति सरधा से भर जाता है .अपने विचारों की धारा को कभी रोकियेगा नहीं .
जवाब देंहटाएंऔर जमाल को आप जिश सटीक और संयत भाषा में जवाब देकर उसको आइना दिखाते है उसके लिए शुक्रिया
राम राम अमित भाई!
जवाब देंहटाएंएक बात और जो हर हिन्दू सत्संग या प्रवचन के बाद मैंने सुनी है,और जिसका बहुत जोर से और सच्चे मन से सभी उच्चारण भी करते है वो ये है कि
"धर्म कि जय हो,
धर्म कि जय हो,
अधर्म का नाश हो,
अधर्म का नाश हो,
प्राणियों में सद्भावना हो,
प्राणियों में सद्भावना हो,
विश्व का कल्याण हो,
विश्व का कल्याण हो,
हर हर महादेव....
बोलो भारत माता की जय...
बोलो गाऊ माता की जय..."
एक हिन्दू भावना को स्पष्ट करती है!आपका ये यज्ञ अनंत तक अथक चले....
कुंवर जी,
हमारे ग्रंथो में तो इस बात पर भी जोर दिया गया ह की अगर खाना थोडा भी हो तो भी मिल बाँट के खाओ.
जवाब देंहटाएंये भी तो एक परिवार की ही बात हैं ना.
पर आजकल इसका उल्टा अर्थ निकाल रहे हैं कुछ लोग की रिश्वत चाहे थोड़ी ही हो खाओ ऊपर से नीचे तक
आपके विचारों की जितनी सराहना की जाये उतनी कम है. आपके लेखन से आपकी विषयवस्तु पर गहरी पकड़ उजागर होती है
जवाब देंहटाएंआप कहते हैं तो असर होता है. बात का श्रेष्ठ होना ही पर्याप्त नहीं वक्ता भी उस बात को कहने का चरित्र रखता हो तो बात का द्रव्यमान बढ़ जाता है.
जवाब देंहटाएंआश्चर्य तब होता है - जब देखती हूँ कि ग्रंथों में इतनी बातें बताई होने पर भी लोग उन्हें नहीं पढना चाहते | वे "अंधे को अंधे का सहारा " की तरह एक दूसरे से तर्क कर के ज्ञान पाना चाहते हैं - और आत्मा परमात्मा - सब "नहीं हैं" यह कह कर नकार देते हैं |
जवाब देंहटाएंअयं निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम्।
जवाब देंहटाएंउदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥