हमें कभी कभी अप्रत्याशित परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है. ऐसी परिस्थितियाँ जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते सामने खडी हो जाती है. क्या कारण है ??
सबसे पहले तो समझने वाली बात यह है कि ईश्वरीय विधान में हमें ऐसा कुछ भी प्राप्त नहीं होता जिसके अधिकारी हम नहीं है .
कर्म सिद्धांत अकाट्य और सुनिश्चित है. संसार भर में सारे प्राणियों के जो सुख-दुःख, अच्छी-बुरी परिस्तिथि जो कुछ भी हम देख पाते है; वह हमारे ही पिछले कर्म का प्रतिसाद है. हमारा केवल यही एक जन्म नहीं है. हमारे साथ असंख्य पूर्वजन्मों के कर्म संस्कार संचित है .
लेकिन कुछ मान्यताएं बतलाती है कि सिर्फ यही एक जन्म है और मृत्यु के बाद एक लम्बे इन्तजार के बाद न्याय का समय आएगा जिस दिन सारे प्राणियों का हिसाब किताब होगा. जबकि न्याय कि भावना और प्रत्यक्ष दिखने वाली स्थितियों में यह सिद्धांत टिक नहीं पाता है. अगर वर्तमान जन्म ही प्रथम और अंतिम है तो फिर सभी प्राणियों को एक साथ और एक ही परिस्थितियों में जन्म लेना चहिये था; जबकि हम देखते है कि ऐसा बिलकुल नहीं है .क्यों कोई शारीरिक रूप से अपंग जन्म लेता है, या हो जाता है, क्यों कोई परम धनि या परम फ़कीर होता है, अगर गर्भाशायी बालक भी किसी प्रकार दुःख प्राप्त कर रहा है तो सीधा सीधा मतलब है कि उसके पूर्वजन्म के कर्म फलदायी हो रहे है, जन्म लेते ही कितने ही बच्चे भयंकर परिस्थितियों का सामना करते है, यह किस कारण से साफ़ है पिछले कर्मनुबंध से. नहीं तो कोई कारण नहीं है कि कोई भी प्राणी संसार में असमान रूप से सुख-दुःख भोगे.
मेरी समझ में तो न्याय सिद्धांत तो इसी प्रकार घटित होता है कि संसार एक अनवरत और शाश्वत प्रक्रिया है, सारा जीव समुदाय उसका अंग है और अपने कर्मानुसार जगत में फलोप्भोग करता है .जो कुछ भी घटित होता है उसके लिए हम किसी दूसरे को दोष नहीं दे सकते है. भले ही कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारी परिस्थिति के लिए उत्तरदायी दिख रहा हो, पर वह हमारे सुख-दुःख का मूल कारण बिलकुल भी नहीं है.बल्कि अनेक जन्मों में हमारा अनेक जीवात्माओं से सम्बन्ध रहता है. उनके साथ हमारा ऋणानुबंध है, जिसे हमें समय अनुसार चुकता करना होता है. इस तरह प्रत्येक परिस्तिथि का मूल कारण हम ही है. जब तक हमारे कर्म का लेखा अनुमति नहीं देगा, तब तक कोई हमें सुख-दुःख नहीं दे सकता.
काहु न कोउ सुख दुःख कर दाता /
निज कृत करम भोगु सब भ्राता //
एक बार धृतराष्ट्र ने श्री कृष्ण से पूछा कि मैंने जीवन में ऐसा कोई भयंकर पाप नहीं किया, जिसके फलस्वरूप मेरे सौ पुत्र एक साथ मार गए. श्रीकृष्ण ने उसे दिव्य द्रष्ठी प्रदान कि . तब उन्होंने देखा कि पचास जन्म पहले वे एक बहेलिया थे और उन्होंने पेड़ पर बैठे पक्षियों को पकड़ने के लिए जलता हुआ जाल फेंका था, जिससे सौ पक्षी अंधे होकर जाल में गिरे और मार गए. पचास जन्मों तक संचित पुण्य कर्मों के कारण उन्हें इस कर्म का फल नहीं मिला, पर जब पुण्य कर्मों का प्रभाव ख़त्म हुआ तो उन्हें यह फल भोगना पड़ा. कर्मफल अकाट्य है,अचूक है, उसे भोगना ही पड़ता है -- "अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं"
यह बात भी पूरी तरह सही है कि भगवान् कि मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता. ईश्वर न किसी से राग करता है न किसी से द्वेष. वह तो केवल दया और न्याय करता है. छोटी बुद्धि के होने के कारण हम नहीं जान पाते कि हमारे लिए सही गलत क्या है. पर सर्वज्ञ होने के कारण ईश्वर जानता है कि हमारे हित में क्या है. उसके आगे हमारे सारे कर्मों का हिसाब है, इसलिए सबका समन्वय करते हुए जो युक्तियुक्त होता है, वह वही करता है.
इसलिए सभी अच्छे बुरे कर्मों का ध्यान देते हुए हमें अपने जीवन में सज्जनता लाते हुए, दूसरों की भलाई के काम करने चहिये जिससे कि पिछले गलत कामों को भोगते हुए हमसे कोई दूसरा गलत काम ना जो जाये जिसका फल फिर दुखदायी हो.