रविवार, 13 दिसंबर 2015

"कृपा करहुँ गुरुदेव की नाई"

"बुद्धि हीन तनु जानि के । सुमिरौ पवन कुमार ।
बल बुधि विद्या देहु मोहि । हरहु कलेस विकार ।"

हनुमान चालीसा उन श्रीहनुमातलाल की वंदना हैं।
जो अपने मान का हनन करने के कारण "हनुमान" कहलाते हैं।
हनुमान जी हैं गुरु और उनका स्वभाव हैं जीव को श्रीराम भक्ति की ओर उन्मुख करना।

"कृपा करहुँ गुरुदेव की नाई" के भाव से जब हम उनके शरणागत होते हैं तो,  प्रथमतः तो स्वयं हनुमान अपने स्वरुप से हमें शिक्षा देते हैं अपने मान, अहं को त्यागने की।
दूसरे परमगुरु श्रीहनुमान की शरण होते हैं तो स्वतः ही जीव की अहं बुद्धि का त्याग हो जाता हैं और ऐसा मान रहित भक्त पहली प्रार्थना ही ये करता हैं -

हे पवनकुमार मैं बुद्धिहीन आपकी शरण हूँ मुझे अपनी शरण लीजिये और आत्मबल, निश्चयात्मक बुद्धि और आत्मज्ञान रूपी विद्या का दान दीजिये जिससे मेरे कलेश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश ) और विकार (काम क्रोध लोभ मोह अहंकार) का नाश हो हरण हो।
जो जीव अपने अहंकार का अपने मान का हनन करके परम गुरु श्रीहनुमान जी का स्मरण करेगा उनकी शरणागति लेगा हनुमत कृपा से उसके अविद्या, अस्मिता आदि पञ्च क्लेश और काम, क्रोध आदि पञ्च विकारों का नाश होकर श्रीराम भक्ति की प्राप्ति होगी।
गुरु स्वयं अपने स्वरुप शक्ति का शिष्य में अधिष्ठान करता हैं, तो जिस अहंम शून्य शरणागत शिष्य में परम गुरु हनुमान अपने स्वरुप का अधिष्ठान करेंगे वो जीव भी स्वयं हनुमान हो जाएगा।

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2015

"केशव (कृष्ण) का पतन (मृत्यु) देखकर पाण्डव हर्ष से भर गये और सारे कौरव 'हा केशव' कहकर रोने लगे" ;) ;)


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असुरों के दुष्कर्म को आप निम्न दो श्लोकों के उदहारण से आसानी से समझ लीजिये।
एक सुभाषित श्लोक हैं ----
केशवं पतितं दृष्ट्वा पाण्डवा: हर्षनिर्भरा:।
रोदन्ति सर्वे कौरवा: हा हा केशव केशव ॥
इसका प्रथम दृष्टया अर्थ मुझे और आपको यही समझ आयेगा कि "केशव (कृष्ण) का पतन (मृत्यु) देखकर पाण्डव हर्ष से भर गये और सारे कौरव 'हा केशव' कहकर रोने लगे" क्या ये इसका वास्तविक अर्थ हुआ ?????
कृष्ण का पतन देखकर पाण्डव कैसे हर्ष से भर जाएंगे और कौरव क्योंकर दुःख मनाने लगेंगे !!!!!!!
लेकिन श्लोक का महाभारत युद्ध, कृष्ण, पाण्डव या कौरवों से दूर दूर तक क्या कहीं भी कुछ भी सम्बन्ध नहीं हैं।
इसका अर्थ है -
के (क) - पानी में
शवं - लाश को
पतितं - गिरते
दृष्टवा - देखकर
पाण्डवाः - मछली या बागळ,
हर्षनिर्भराः - हर्ष से भर गए
रोदन्ति - रोने लगे
सर्वे - सारे
कौरवाः - कौवे
हा केशव - हाय शव पानी में
शव को पानी में गिरते देख जलीय मछलियाँ हर्ष से भर गयी और सारे कौवे रोने लगे की हाय शव पानी में गया।
अब बताइये असुर अर्थ क्या अनर्थ कर सकता है smile emoticon
अच्छा एक अगला श्लोक भी देखिये -
हतो हनुमतारामो सीता सा हर्षनिर्भरा। रुदन्ति राक्षसास्सर्वे हाहारामो हतो हतः॥
हनुमान ने राम को मार डाला जिससे सीता हर्ष से भर उठी, और सारे राक्षस रोने लगे की हाय राम को मार डाला।
अब हैं ना ये सत्यानाशी अर्थ smile emoticon
राम किस प्रकार मारे जायेंगे ??? उनकी मृत्यु के समाचार से भगवती सीता माँ कैसे हर्ष मनाएंगी ?? मारेगा भी कौन, हनुमानजी !!!!!!!!! और राम के मारे जाने के समाचार से राक्षस दुःखी होंगे !!!!!!!
भेरी फन्नी smile emoticon smile emoticon
हनुमत+आरामः =हनुमतारामः - हनुमान ने जहाँ आराम पाया = अशोक वाटिका
हनुमान ने अशोक वाटिका को नष्ट-भ्रष्ट किया ये देखकर श्रीसीताजी हर्ष से भर गई और अपनी वाटिका का हनन देखकर सारे राक्षस दुःख से हाय हमारा आराम (बागीचा) कहकर रोने लगे।
ये श्लोक तो लौकिक संस्कृत के हैं इनमें ही असावधानी पे अर्थ का अनर्थ सम्भाव्य हैं।
वैदिक संस्कृत तो गहन हैं उनको छिछली बुद्धि से समझने की कोशिश बिजली के नंगे तार छूने के ही समान घातक हैं।
मित्रों! सनातन वाणी हैं शान्ति की, सद्भाव की, सर्वेः भवन्तु सुखिनः की, इसमें अशान्ति, दुर्भाव और दूसरों को दुःख देने की ध्वनि सुनने की कोशिस करना पत्थर निचोड़कर पानी टपकाने का प्रयास करने के ही सामान निष्फल हैं। सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में खींचतान करके मांसाहार, गौहत्या, आदि सिद्ध करने का प्रयास उनकी दुष्टता का परिचायक नहीं हैं, ये हमारी मूर्खता का परिचायक हैं। हमने हमारे ऋषियों की वाणी का अध्ययन, मनन, करना बंद कर दिया तो जो चाहे अपनी मर्जी अनुसार आसानी से मांसाहार, अश्लीलता की प्रतीति आपके ग्रंथों में आपको करवाकर आपके मन में अपनी ही जड़ों के प्रति ग्लानि का भाव भर सकता हैं। भर क्या सकता हैं भर रहा हैं। और आप हम अपने ही आलस, अपनी मूढ़ मति के वशीभूत अपने अमृत कुण्ड को गंगा नाला माने जा रहे हैं।
जो साधारण संस्कृत नहीं जानते वे वेदों की क्लिष्ट संस्कृत के विद्वान बनते हुये अर्थ का अनर्थ करते है। शब्द तो काम धेनु है उनके अनेक लौकिक और पारलौकिक अर्थ निकलते है । अब किस शब्द की जहाँ संगति बैठती है, वही अर्थ ग्रहण किया जाये तो युक्तियुक्त होता है अन्यथा अनर्थकारी। ऐसे ही बहुत से शब्द वेदों मे प्राप्त होते है, जिनको संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति से हीन व्यक्ति अनर्गल अर्थ लेते हुये अर्थ का कुअर्थ करते हुये अहिंसा की गंगोत्री वेदों को हिंसक सिद्ध करने की भरसक कोशिश करते है। इसलिए बार बार कहा जाता हैं अपने ग्रंथों को पढ़िए बार बार पढ़िए सनातन वाणी अपना शुद्ध अर्थ स्वयं प्रकट करेगी।