गुरुवार, 30 सितंबर 2010

 
 
श्रीरामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भव भय दारुणं
नवकंज-लोचन कंज-मुख कर-कंज पद-कंजारुणं

कन्दर्प अगणित अमित छबि नवनील-नीरद सुन्दरं
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं

भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्यवंश-निकंदनं
रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नंदनं

सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु उदारु अंग बिभूषणं
आजानुभुज शर-चाप-धर संग्राम-जित-खरदूषणं

इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं।
मम हृदय-कंज निवास कुरु कामादि खलदल-गंजनं
~-~-~-~-~
एक भरोस, एक बल , एक आस , विश्वास , एक रामघन हेतु चातक तुलसीदास

बुधवार, 29 सितंबर 2010

आई एम् २४ इयर्स ओल्ड.........गौरव अग्रवाल को जन्मदिन की बधाई !

आज सन्डे की सन्डे लाइफ के नए फंडे देने वाले गौरव भाई का अवतरण दिवस है. एक उर्जावान युवा की उर्जा को उत्सर्जित होते चौबीस साल हो गए है, ईश्वर इस उर्जा का प्रवाह अनंत तक बनाये रखे  , शायद गौरव के लिए ज्यादा कुछ बताने की जरुरत तो है नहीं. ब्लॉग जगत में ऐसा कौन होगा जो उनकी गंभीर अध्यनशीलता की परिचायक टिप्पणियों का आनंद न ले चुका हो. किसी भी पोस्ट की विषयवस्तु को खोलकर जिस बारीकी से गौरव बाहर ला देते है, वैसी प्रतिभा कम ही देखने को मिलती है. और जिस तरीके से अपनी हर एक पोस्ट में नए विचारों से एक सार्थक चर्चा का सूत्रपात करतें है काबिले तारीफ़ है.
उन्हें जन्मदिन की हार्दिक बधाई. देते हुए ईश्वर से यही प्रार्थना है >>>>>>>>

पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रुणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्


बुधवार, 15 सितंबर 2010

"सत्य" --- एक खोज

प्रतुलजी ने मेरी पिछली पोस्ट पर मेरे माध्यम से पंडित डी.के. शर्मा "वत्स" जी का वात्सल्य पाने की उत्कंठा जाहिर की थी. यह भावना पंडितजी तक मेल से पहुंचा दी है. 
मैंने अपनी बुद्धि की सीमित गति तक इन प्रश्नों के उत्तर पाने की कोशिश की, फिर सोचा की इस विषय पर ब्लॉग जगत के मनीषियों के विचार भी मिल जाएँ तो. मेरा अच्छा ज्ञान-वर्धन हो जायेगा.


प्रतुलजी के सवालों के उत्तर मैं जितना खोज पाया वह आपके समक्ष रख रहा हूँ, और आपसे ज्यादा जानने की आशा रखता हूँ .........

सत्य तो हमेशा एक ही होता है. पर सत्य के बारे में प्रश्न यह है की, सत्य और असत्य में भेद करने का मापक साधन क्या है ?  सत्य के मापक की खोज स्वयं अनुभव में करनी चाहिए.
सत्य सर्वव्यापक है अपरिवर्तनीय है, पर अनुभव-गम्य है . अब मान लीजिये की मैं कहूँ की मेरे सिर में दर्द हो रहा है, अब यह मेरे लिए स्पष्ट अनुभव है और मैं इसे असत्य नहीं कह सकता, मुझे जो कष्ट अनुभव हो रहा है, वह इस सर-दर्द के कारण हो रहा है, इस दर्द की अनुभूति का मेरे पास दूसरा कोई मापक नहीं है. जिससे की मैं जांच सकूँ की मुझे दर्द हो रहा है या नहीं. इसलिए मेरा अनुभव मेरा सत्य है.
मैं कहता हूँ "टेबल पर ग्लास रखा है" इस वाक्य के यथार्थ होने का अर्थ क्या है? मैं ख्याल करता हूँ कि मुझसे अलग, बाहर, टेबल और ग्लास मौजूद हैं और उनमें एक विशेष संबंध है. यदि स्थिति वास्तव में ऐसी ही है तो मेरा वाक्य सत्य है; ऐसा न होने की हालत में असत्य है.
मुझ से अलग टेबल है टेबल पर ग्लास है, यह मैंने कैसे जाना ? मेरी आँख ने ऐसा देखा. पर आँख कभी कभी धोखा भी दे जाती है तो मैंने उसे छू कर देख लिया, यह मेरा दूसरा अनुभव है.
पर मेरे तो आँख भी है, हाथ भी है. देख छू कर निश्चय  कर लिया की टेबल पर ग्लास रखा है. पर जिसके आँख नहीं है, उसे कैसे निश्चय होगा ?? दूसरा कोई बताएगा, पर कैसे मान लें !  स्वयं को अनुभव तो हुआ ही नहीं, जिसने बताया है वह तो उसका अनुभव है, खुद छू कर देखेगा. अब अगर व्यक्ति जन्मांध नहीं है तो हाथ से छू कर अपने पूर्व अनुभव के आधार पर निश्चय कर लेगा की टेबल पर ग्लास रखा है. लेकिन अगर कोई जन्मांध है तो ? तब वह अपने अब तक के अनुभव के आधार पर जैसा की उसे निश्चय कराया गया है की टेबल और ग्लास इस प्रकार के होतें है के आधार पर निश्चय करेगा.
सत्य एक ही है की टेबल है और उस पर ग्लास रखा है, लेकिन सबके अपने अपने अनुभव और परिस्थिति के कारण अलग अलग तरह से देखना पढ़ रहा है
जिन वाक्यों को हम सत्य कहते हैं, वे दो प्रकार के होते हैं- वैज्ञानिक नियम संबंधी और तथ्य संबंधी. "दो और दो चार होते हैं," यह वाक्य हर कहीं और सदा सत्य हैं; देश और काल का भेद उनके सत्य होने से असंगत है. पर अमित शर्मा का जन्म २७ अगस्त १९८३ को हुआ, यह अमित शर्मा के जन्म से पहले कहा ही नहीं जा सकता था, पर अब सदा के लिए सत्य है.
इसलियें हमारे अनुभवों के आधार और परिस्थितियों के अनुसार सत्य अलग अलग भासता है.
सत्य व्यापक है और बुद्धि सीमित. इसलिए सत्य तो अपरिवर्तनीय ही रहता है लेकिन बुद्धि की क्षमताओं के अनुसार होने वालें अनुभवों के आधार पर सत्य के प्रति हमारे निश्चय परिवर्तित होते रहतें है की हमने पहलें जो निर्णय लिया या जो अनुभव किया वह सत्य था या अब सत्य  हैं.
सत्य -असत्य को सही-गलत के नामों से भी हम जानतें है. जो निर्णय आज सही या सत्य भासता है वही कल गलत भी भास सकता है. 
प्रतुलजी सूर्य पूर्व से निकलता है सत्य नहीं है. बल्कि हमने अपने अनुभव से इसे सामजिक, और प्राकृतिक सत्य के रूप में स्थापित किया है, जबकि सत्य तो यह है की सूर्य स्थिर है और खगोलीय व्यवस्था अनुरूप हमें पूर्व से निकलता दिखलाई पड़ता है, इसलिए सूर्य का पूर्व से निकलना हमारा अनुभव जन्य सत्य है. अब जब सूर्य का पूर्व से निकलना पूर्ण सत्य नहीं है अपितु तात्कालिक अनुभूति से अनुभूत सत्य है . उसी प्रकार ध्रुवीय प्रदेशों के बारें में भी समझना चाहियें.
सत्य तो एक ही रहा की सूर्य पूर्व दिशा से नहीं निकल रहा है, पर स्थान विशेष की परिस्थितियों के अनुभव ने उसे सत्य के रूप में स्थापित कर दिया.
सत्य व्यापक है और हमारी अनुभव क्षमताएं सीमित, इसलियें हमारें शास्त्रों ने  "न इति, न इति" का घोष करके यही समझने की कोशिश की है की जितना जान लिया है उसे ही अंतिम मान लेने की भूल नहीं करनी चाहियें और सदा सत्यान्वेषण में निरत रहना चाहियें.

क्योंकि जब सत्य को जान लिया जायेगा तो फिर कुछ जानना शेष ही ना रह जायेगा. और जानने के बाद प्रश्न भी नहीं उठेंगे. इस लिए जब तक ना जाना जाये तब तक हमें सत्य की ख़ोज में ही लग्न चाहिये ना की, जितना जान लिया उसे ही पूर्ण मान लिया जाये.वास्तविक और व्यापक सत्य ऊँची वस्तु है. वह भाषण का नहीं, वरन् पहचानने का विषय है. समस्त तत्वज्ञानी उसी महान तत्व की अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार व्याख्या कर रहे हैं. और आप-हम उनके अनुभव किये को अपने अनुभवों पर परखने की कोशिश कर रहें है.  ईश्वर, जीव, प्रकृति के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करके अपने को भ्रम-बन्धनों से बचाते हुए परम पद प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ना मनुष्य जीवन का ध्रुव सत्य है. उसी सत्य के प्राप्त करने के लिए हमारा निरन्तर उद्योग होना चाहिए.


अब अगर आप विद्वतजनो का प्रसाद भी इस विषय पर मिल जाये तो मेरा ज्ञान-वर्धन होगा जिसके लिए मैं आपका आभारी रहूँगा.

 

अमित-शर्मा,

रविवार, 12 सितंबर 2010

"करना" हमारे बस में है लेकिन "होना" हमारे बस में नहीं है . ----अमित शर्मा

तेरे मन कुछ और है , विधना के कुछ और

आप कितनी भी कोशिश कर लीजिये आपका सोचा सो फीसीदी यथारूप कभी नहीं घट सकता है. क्योंकि व्यक्ति की सोच इस समष्टि का सञ्चालन नहीं कर सकती है. समष्टि के सञ्चालन के अनुसार हर चेतना के आयाम निर्धारित है.
जो व्यवस्था इस विराट सञ्चालन की विधि निर्धारित कर रही है, वह हर जीव के त्रिविध कर्म और उनके त्रिविध फलों के अनुसार एक एक पल का घटनाक्रम निर्देशित कर रही है . हर पल आपके साथ जो घट रहा है वो इस विराट स्रष्टि के अनन्त जीवों के आपसी प्रारब्ध के आपसी जुड़ाव का चमत्कार है.
संसार एक अनवरत और शाश्वत प्रक्रिया  है, सारा जीव समुदाय उसका अंग है और अपने कर्मानुसार जगत में फलोप्भोग करता है .जो कुछ भी घटित होता है उसके लिए हम किसी दूसरे को दोष नहीं दे सकते है. भले ही कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारी  परिस्थिति के लिए उत्तरदायी दिख रहा हो, पर वह हमारे सुख-दुःख का मूल कारण बिलकुल भी नहीं है.बल्कि अनेक जन्मों में हमारा अनेक जीवात्माओं से सम्बन्ध रहता है. उनके साथ हमारा ऋणानुबंध है, जिसे हमें समय अनुसार चुकता करना होता है. इस तरह प्रत्येक परिस्तिथि का मूल कारण हम  ही है. जब तक हमारे कर्म का लेखा अनुमति नहीं देगा, तब तक कोई हमें सुख-दुःख नहीं दे सकता.
काफी दूर से एक गाडी चली आ  रही है और एक आदमी चल रहा है अचानक एक पॉइंट पर एक निश्चित टाइम पर दोनों टकरा जातें है. कोई बिल्डिंग बन रही है कोई पत्थर ऊपर से नीचे गिरा जब वह बस जमीन छूने ही वाला है की कोई ठीक उसके नीचे आगया.... हो गया काम तमाम.
यह सब कुछ शायद यूँ ही तो नहीं हो जाता है. कहीं ना कही अंतर-सम्बन्ध तो रहता ही है हर घटना में.


यह सब कुछ होना है और होकर ही रहेगा, क्योंकि कर्म सिद्धांत अटल अचूक है. लेकिन कर्म सिद्धांत सिर्फ "होनी" के घटने का ही तो नाम नहीं है, कर्म सिद्धांत का अभिन्न अंग "करना" क्योंकि बिना करें "कर्म" कैसे होगा कर्म के अभाव में कर्मफल कैसे घटित होगा.  करना हमारे  बस में है लेकिन होना हमारे बस में नहीं है. करने के लिए मनुष्य के पास विवेक उपलब्ध है. विवेक से निर्धारित किया जा सकता है की क्या करना चहिये और क्या नहीं.
प्रश्न हो सकता है की मान लीजिये किसी ने किसी की हत्या कर दी तो यह इनका कर्म भोग था मारने वाले को बदला लेना था और मरने वाले को बदला चुकाना था.  बात ठीक है लेकिन यहाँ भी "करना" और "होना" देखना पड़ेगा मरने वाले को तो अपने कर्म का फल मिल गया. उसका तो जो "होना" था हो गया, पर उस करने वाले के साथ फिर एक कर्म बंधन जुड़ गया. हत्या करने वाला इस नए कर्म को होने से अपने विवेक से रोक सकता था. क्योंकि करने पर उसका अधिकार था. मनुष्यमात्र को विवेकशक्ति प्राप्त है और उस विवेक के अनुसार अच्छे या बुरे काम करने में वह स्वतंत्र है. विवेक छोड़कर दूसरे को मारना  या बुरा करने की नियत दोष है . कोई कहे की जैसा प्रारब्ध है उसी हिसाब से बुद्धि बन गयी, फिर मारने वाले का क्या कसूर ?
कसूर था की उसने अपनी बुद्धि को द्वेष के अधीन कर दिया, जिससे घटना के "होने" में उसका "करना" सहायक हो गया .
कर्म-सिद्धांत के चक्र से दूर होने का नाम ही तो मुक्ति है, जिसे प्राप्त करना परम उद्देश्य है. और इसकी प्राप्ति के लिए हर जीव के पास विवेक शक्ति है जिसका उपयोग करके जीव इस कर्मबंधन से मुक्त हो सकता है. और मुक्त होना ही परम पुरषार्थ है. 

इसलिए सभी अच्छे बुरे कर्मों  का ध्यान देते हुए हमें अपने जीवन में सज्जनता लाते हुए, दूसरों की भलाई के काम करने चहिये जिससे कि पिछले गलत कामों को भोगते  हुए हमसे कोई दूसरा गलत काम ना जो जाये जिसका फल फिर दुखदायी हो. 


गुरुवार, 9 सितंबर 2010

आप समझ भी नहीं पाते और पल में जिंदगी का ढर्रा बदल जाता है.

अजीब गोरख-धंधा है यह जिंदगी भी. आप समझ भी नहीं पाते और पल में जिंदगी का ढर्रा बदल जाता है. अभी एक-डेढ़ महीने पहले तक आराम से जिंदगी चल रही थी, ब्लोगिंग भाग रही थी, अचानक तूफ़ान आये और संभलते-संभलते आज कुछ कहने लायक समय मिल पा रहा है. 
कुछ आपात / विपद घटनाओ की वजह से, कुछ व्यवसाय की व्यस्तता से आप लोगों से दूरी बन गयी. शायद दो-एक दिनों में पुराना ढर्रा लौट आये, आप लोगों के सानिध्य में अपने झंझावातों को भूल सकूँ . आज इतने दिनों बाद ब्लॉग/मेल देखे तो स्नेही जनों के कमेन्ट/ मेल पढ़कर संबल मिला. यह स्नेह ऐसे ही मिलता रहे तो कौन संकटों से पार नहीं पाया जा सकता है.   अभी तो पंडित वत्स जी के कर्म सिद्धांत लेखमाला को पढ़कर विचलित से हो गए मन को पटरी पर ला रहा हूँ. लेकिन एक बात अब समझ में नहीं आ रही की उन दिनों यह मन बिलकुल भी विचलित नहीं हुआ, और अब जब सब कुछ ठीक होता जा रहा है तो मन अजीब तरीके से विचलित सा हुआ जाता है कभी कभी इसका क्या कारण हो सकता है.

बाकी घटित घटनाओ से यह सीख पाया हूँ की जिसे हम अपना घनिष्ठ मानतें है, और सामने वाला भी उतनी ही शिद्दत से घनिष्ठता रखता है. और जो सम्बन्ध आपके व्यक्तिगत नहीं १२-१३ पीढ़ियों के हो. जिन संबंधों के शिखर आसमान छू रहें हो, सिर्फ पांच मिनट के अन्दर धराशायी हो सकतें है. और आप चाह कर भी कुछ नहीं कर सकतें है. फिर एक के बाद एक घटनाक्रम ऐसे ऐसे मोड़ लेता है की भगवान् ही मालिक है .

चलिए जी ऐसे ही तो जीवन में अनुभव आतें है. और अच्छे बुरे की परख होती है.
और हाँ इस सारें वाकियों से मेरी भगवान् और कर्म सिद्धांत में आस्था और दृढ हुयी है, कभी समय मिला तो आप से यह अनुभव जरूर बाटूंगा. आज तो इतना ही.......