तेरे मन कुछ और है , विधना के कुछ और
आप कितनी भी कोशिश कर लीजिये आपका सोचा सो फीसीदी यथारूप कभी नहीं घट सकता है. क्योंकि व्यक्ति की सोच इस समष्टि का सञ्चालन नहीं कर सकती है. समष्टि के सञ्चालन के अनुसार हर चेतना के आयाम निर्धारित है.
जो व्यवस्था इस विराट सञ्चालन की विधि निर्धारित कर रही है, वह हर जीव के त्रिविध कर्म और उनके त्रिविध फलों के अनुसार एक एक पल का घटनाक्रम निर्देशित कर रही है . हर पल आपके साथ जो घट रहा है वो इस विराट स्रष्टि के अनन्त जीवों के आपसी प्रारब्ध के आपसी जुड़ाव का चमत्कार है.
संसार एक अनवरत और शाश्वत प्रक्रिया है, सारा जीव समुदाय उसका अंग है और अपने कर्मानुसार जगत में फलोप्भोग करता है .जो कुछ भी घटित होता है उसके लिए हम किसी दूसरे को दोष नहीं दे सकते है. भले ही कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमारी परिस्थिति के लिए उत्तरदायी दिख रहा हो, पर वह हमारे सुख-दुःख का मूल कारण बिलकुल भी नहीं है.बल्कि अनेक जन्मों में हमारा अनेक जीवात्माओं से सम्बन्ध रहता है. उनके साथ हमारा ऋणानुबंध है, जिसे हमें समय अनुसार चुकता करना होता है. इस तरह प्रत्येक परिस्तिथि का मूल कारण हम ही है. जब तक हमारे कर्म का लेखा अनुमति नहीं देगा, तब तक कोई हमें सुख-दुःख नहीं दे सकता.
काफी दूर से एक गाडी चली आ रही है और एक आदमी चल रहा है अचानक एक पॉइंट पर एक निश्चित टाइम पर दोनों टकरा जातें है. कोई बिल्डिंग बन रही है कोई पत्थर ऊपर से नीचे गिरा जब वह बस जमीन छूने ही वाला है की कोई ठीक उसके नीचे आगया.... हो गया काम तमाम.
यह सब कुछ शायद यूँ ही तो नहीं हो जाता है. कहीं ना कही अंतर-सम्बन्ध तो रहता ही है हर घटना में.
यह सब कुछ होना है और होकर ही रहेगा, क्योंकि कर्म सिद्धांत अटल अचूक है. लेकिन कर्म सिद्धांत सिर्फ "होनी" के घटने का ही तो नाम नहीं है, कर्म सिद्धांत का अभिन्न अंग "करना" क्योंकि बिना करें "कर्म" कैसे होगा कर्म के अभाव में कर्मफल कैसे घटित होगा. करना हमारे बस में है लेकिन होना हमारे बस में नहीं है. करने के लिए मनुष्य के पास विवेक उपलब्ध है. विवेक से निर्धारित किया जा सकता है की क्या करना चहिये और क्या नहीं.
प्रश्न हो सकता है की मान लीजिये किसी ने किसी की हत्या कर दी तो यह इनका कर्म भोग था मारने वाले को बदला लेना था और मरने वाले को बदला चुकाना था. बात ठीक है लेकिन यहाँ भी "करना" और "होना" देखना पड़ेगा मरने वाले को तो अपने कर्म का फल मिल गया. उसका तो जो "होना" था हो गया, पर उस करने वाले के साथ फिर एक कर्म बंधन जुड़ गया. हत्या करने वाला इस नए कर्म को होने से अपने विवेक से रोक सकता था. क्योंकि करने पर उसका अधिकार था. मनुष्यमात्र को विवेकशक्ति प्राप्त है और उस विवेक के अनुसार अच्छे या बुरे काम करने में वह स्वतंत्र है. विवेक छोड़कर दूसरे को मारना या बुरा करने की नियत दोष है . कोई कहे की जैसा प्रारब्ध है उसी हिसाब से बुद्धि बन गयी, फिर मारने वाले का क्या कसूर ?
कसूर था की उसने अपनी बुद्धि को द्वेष के अधीन कर दिया, जिससे घटना के "होने" में उसका "करना" सहायक हो गया .
कर्म-सिद्धांत के चक्र से दूर होने का नाम ही तो मुक्ति है, जिसे प्राप्त करना परम उद्देश्य है. और इसकी प्राप्ति के लिए हर जीव के पास विवेक शक्ति है जिसका उपयोग करके जीव इस कर्मबंधन से मुक्त हो सकता है. और मुक्त होना ही परम पुरषार्थ है.
इसलिए सभी अच्छे बुरे कर्मों का ध्यान देते हुए हमें अपने जीवन में सज्जनता लाते हुए, दूसरों की भलाई के काम करने चहिये जिससे कि पिछले गलत कामों को भोगते हुए हमसे कोई दूसरा गलत काम ना जो जाये जिसका फल फिर दुखदायी हो.