गुरुवार, 9 सितंबर 2010

आप समझ भी नहीं पाते और पल में जिंदगी का ढर्रा बदल जाता है.

अजीब गोरख-धंधा है यह जिंदगी भी. आप समझ भी नहीं पाते और पल में जिंदगी का ढर्रा बदल जाता है. अभी एक-डेढ़ महीने पहले तक आराम से जिंदगी चल रही थी, ब्लोगिंग भाग रही थी, अचानक तूफ़ान आये और संभलते-संभलते आज कुछ कहने लायक समय मिल पा रहा है. 
कुछ आपात / विपद घटनाओ की वजह से, कुछ व्यवसाय की व्यस्तता से आप लोगों से दूरी बन गयी. शायद दो-एक दिनों में पुराना ढर्रा लौट आये, आप लोगों के सानिध्य में अपने झंझावातों को भूल सकूँ . आज इतने दिनों बाद ब्लॉग/मेल देखे तो स्नेही जनों के कमेन्ट/ मेल पढ़कर संबल मिला. यह स्नेह ऐसे ही मिलता रहे तो कौन संकटों से पार नहीं पाया जा सकता है.   अभी तो पंडित वत्स जी के कर्म सिद्धांत लेखमाला को पढ़कर विचलित से हो गए मन को पटरी पर ला रहा हूँ. लेकिन एक बात अब समझ में नहीं आ रही की उन दिनों यह मन बिलकुल भी विचलित नहीं हुआ, और अब जब सब कुछ ठीक होता जा रहा है तो मन अजीब तरीके से विचलित सा हुआ जाता है कभी कभी इसका क्या कारण हो सकता है.

बाकी घटित घटनाओ से यह सीख पाया हूँ की जिसे हम अपना घनिष्ठ मानतें है, और सामने वाला भी उतनी ही शिद्दत से घनिष्ठता रखता है. और जो सम्बन्ध आपके व्यक्तिगत नहीं १२-१३ पीढ़ियों के हो. जिन संबंधों के शिखर आसमान छू रहें हो, सिर्फ पांच मिनट के अन्दर धराशायी हो सकतें है. और आप चाह कर भी कुछ नहीं कर सकतें है. फिर एक के बाद एक घटनाक्रम ऐसे ऐसे मोड़ लेता है की भगवान् ही मालिक है .

चलिए जी ऐसे ही तो जीवन में अनुभव आतें है. और अच्छे बुरे की परख होती है.
और हाँ इस सारें वाकियों से मेरी भगवान् और कर्म सिद्धांत में आस्था और दृढ हुयी है, कभी समय मिला तो आप से यह अनुभव जरूर बाटूंगा. आज तो इतना ही.......

16 टिप्‍पणियां:

  1. जी हम सुनेगें सीधे श्रीमुख से !

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  2. जय श्री राधे-राधे भाईसाहब

    हमारी तो नज़रें ही आप को धोंध कर थक गयीं थी

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  3. जय श्री राधे-राधे भाईसाहब

    हमारी तो नज़रें ही आप को ढूँढ-२ कर थक गयीं थी !!

    चलिए आप आ तो गए,

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  4. आपका वापस आना सुखद है. काफी लम्बा इंतजार कराया पर कहा जाता है ना इंतजार का फल भी मीठा होता है.....आपका पुनः स्वागत है.

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  5. सही कहा अमित! ज़िन्दगी वाक़ई अजीब गोरख-धंधा है!

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  6. कई बार ऐसा लगता है कि हम रिश्तों को पहचान नहीं पाते अपने को दोष दें या मानव मन की जटिलता को ....?? बहरहाल अपनी गलतियां जरूर देखिएगा कम से कम पछतावा नहीं होगा ! शुभकामनायें !

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  7. रिश्ते पुरानी दिवार की तरह होते है.. बरसो तक अडिग खड़े रहते है.. फिर कभी किसी बारिश या तूफ़ान में भरभरा के गिर जाते है..
    ये भी एक फेज है अमित भाई.. गुज़र जायेगा..

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  8. एक लंबे अन्‍तराल के बाद आपको वापस अपने बीच पाना एक सुखद अनुभव है ।

    आज के आपके लेख से आपके अंतर्मन का द्वन्‍द्व दिखाई दे रहा है ,
    ईश्‍वर करे आपकी मानसिक व्‍यथा (यदि कोई है तो) शीघ्र ही शमित हो ।

    आपका पुन: स्‍वागत है , आशा है अब इंतजार खत्‍म हुआ ।

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  9. अमित जी,
    मुझे प्रसाद की पक्तियाँ याद हो आयीं :
    जल-प्लावन के उपरान्त मनु स्तब्ध बैठे हैं.
    हिमगिरी के उत्तुंग* शिखर पर
    बैठ शिला* की शीतल छाँह.
    एक व्यक्ति* भीगे नयनों से
    देख रहा था प्रलय प्रवाह.

    *अर्थ नहीं तात्पर्य है :
    उत्तुंग — उर्वरक
    शिला — सीलिंग फैन
    व्यक्ति — अमित
    प्रलय-प्रवाह — 'सृष्टि' का विपर्यय 'विनाश'.
    यदि सुख सत्य है तो दुःख भी शाश्वत है.

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  10. अमित भाई, इन अनुभवों की बाट जोह रहे हैं। हो सकता है औरों को भी सबक मिल जाये।

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  11. बेहतरीन पोस्ट

    एक बार इसे जरू पढ़े -
    ( बाढ़ में याद आये गणेश, अल्लाह और ईशु ....)
    http://thodamuskurakardekho.blogspot.com/2010/09/blog-post_10.html

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  12. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  13. प्रिय अमित जी, इसी का नाम तो जीवन है...जिसके हर मोड पर कुछ न कुछ अकल्पित सदैव हमारी राह देख रहा होता है....जीवन के इस मर्म को पहचानिये और इस मानसिक/अत्मिक द्वन्द से मुक्त हो...हर्षित मन से जीवन का स्वागत कीजिए.....
    आपके अनुभवों से रूबरू होने को हम भी प्रतीक्षारत है....जारी रखिए.

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  14. @ मिश्राजी श्रीमुख से तो शायद मिलने पर ही सुन पायेंगे, पर जल्द ही मेरे हस्त-कमल से लिखे को आप अपने अरविन्द-नेत्रों से जरूर पढ़ पायेंगें

    @ जय श्री राधे-राधे भाईसाहब.............. आखिर शुक्र है मिल तो गया :) कल परसों में फोन करता हूँ.

    @ विचारीजी सही कहा आपने अंत में फल मीठा तो मिला पर उससे पहिलें कई कडवे फल भी निगलने पड़े हैं.

    @ आपने बुलाया और हम चले आये .............

    @ स्मार्ट इंडियन जी इस गोरख धंधें से पार भी पाना पड़ता ही है

    @ सक्सेना जी यह मानव मन की जटिलता का ही दोष है, जो कभी हम घटनाओं का पूर्वाभास पाकर भी कुछ ना करने की गलती कर बैठतें है. रक्त संबंधों को तो व्यक्ति निभा जाता है, पर १२/१३ पीढ़ियों से चले आये परस्पर सम्मान के रिश्ते को नई पीढ़ी द्वारा समझ पाने में कठिनाई होती है.

    @ कुश भाई सीख मिली है की पुरानी दीवारों की मरम्मत करते रहना चाहियें नहीं तो भरभराने में देर नहीं लगती

    @ पांडेजी, प्रतुल जी आपके स्नेह से संबल मिलता है

    @ शिवम् मिश्राजी आपका आभार की आपने व्यर्थता में भी सार्थकता खोजने की कोशिश की

    @ मौसम जी जल्द ही इन अनुभवों को बाँटने की कोशिश करूँगा,

    @ गजेंद्रजी धन्यवाद्

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  15. @ पंडित जी आप गुरुजनों के आशीर्वाद से परेशानिया खुद ब खुद दूर हो जाती है ................ आपकी कर्म सिद्धांत लेखमाला ने भी अवसाद से पार पाने में सहायता की है

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जब आपके विचार जानने के लिए टिपण्णी बॉक्स रखा है, तो मैं कौन होता हूँ आपको रोकने और आपके लिखे को मिटाने वाला !!!!! ................ खूब जी भर कर पोस्टों से सहमती,असहमति टिपियायिये :)