क्या कभी ऐसे भी सोचा जा सकता है की "मर्द को दर्द नहीं" वाली मर्दानगी की मानसिकता ने समाज का सबसे ज्यादा अहित किया है. और अब महिला शशक्तिकरण के कर्ण मधुर नारे से समाज में विद्रूपता फ़ैलाने की कोशिश की जा रही है.
ईश्वर ने जीव को उत्पन्न किया तो इस स्रष्टि का एक भी तत्व ऐसा नहीं जो जीव के स्वाभाव में ना हो. सद्गुण-दुर्गुण, प्रेम-कटुता, साहस-दुर्बलता, आदि सारे गुण-कर्म नर-मादा दोनों में समान रूप से विद्यमान है. हाँ शारीरिक रूप से अनेक तत्व ऐसे हैं जी प्राकृतिक रूप से नर-मादा को भिन्न बनाते है. और समाज में कठोर और सरल कार्यों के विभाजन के लिए भी उत्तरदायी हुए है.
आदि काल में जीवन प्रवाह सहज रूपेण गतिशील था, समाज में अधिकारवादी मानसिकता का उदय नहीं हो पाया था, सो शासक-शोषित अबल-सबल का तो प्रश्न ही नहीं. फिर जब कालप्रवाह में समाज का गठन हुआ कुछ सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के नियम बने. समाज स्त्री या पुरुष प्रधान ना होकर परिवार प्रधान बना, परिवार को ही समाज की प्राथमिक इकाई माना गया है. ना की स्त्री या पुरुष वर्ग को.
प्राकृतिक कारणों से नर को मिले सबल कठोर शारीरिक संरचना के कारण उसे श्रम साध्य कार्यों में प्रवृत्त होना पड़ा. जंगल साफ़ करके खेती लायक जमीन तैयार करना, खेती करना, आदि सारे कठोर कार्य उस पर आरोपित कर दिए गए और इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए आवश्यक शारीरिक और मानसिक कठोरता को बनाये रखने के लिए पुरुष को हर समय यही सिखलाया गया की एक पुरुष या शक्तिशाली पुरुष को क्या करना चाहिये और क्या नहीं. समाज द्वारा यह निर्धारित कर दिया गया की पुरुषों को बलिष्ट, आक्रामक, हिम्मती, कठोर, ना झुकने वाला होना चाहिये. पुरुष को शारीरिक और मानसिक रूप से सबल होना ही चाहिये, कमजोर तो कतई नहीं. उन्हें अपना अस्तित्व ऐसा निर्मित करना होता ही की दूसरे उनसे डरें. उन्हें अपने परिवार की सुरक्षा के लिए हमेशा तत्पर होना होता है, और येन-केन प्रकरेण परिवार के भरण-पोषण के लिए आर्थिक सुरक्षा के साधन जुटाने होते है. मर्द रोते नहीं हैं। मर्दों को दर्द नहीं होता। मर्द शर्माते नहीं हैं।
अगर हम निष्पक्ष भाव से विचार करें तो कुछ समझ में आ सकता है की इन सब बातों का दबाव बनाकर पुरुष का कितना शोषण सदियों से किया जा रहा है. पुरुष की प्राकृतिक रचनात्मकता और कोमलता को जबरदस्ती कुचलवाकर इस कदर मर्द बनने के लिए प्रेरित किया जाता है पुरुष अपने जीवन के सारे व्यवहारों को आक्रामकता और लड़ाई-झगडे से ही पूर्ण करने की कोशिश करते है.
अपनी सहज प्राकृतिक संवेदनाओ से परे पुरुष को केवल दिमाग से सोचने वाला एक मशीनी पुर्जा या एक कूकर बना दिया गया है जिसे जो सिखलाया जाता है वही करता है. जो पुरुष अपने जीवन के सभी छोटे-बडे फैसलों में अपनी दिल की बात नहीं सुनते, केवल दिमाग से ही काम लेते हैं. क्योंकि आदमी इतनी क्रूरता से अपनी भावनाओं को कुचलते हैं वे असंवेदनशील व पत्थरदिल हो जाते हैं. जाहिर है वे दूसरों की भावनाओं की भी परवाह नहीं करते.
अब पुरुष को इस झूंठी मर्दानगी से निकालकर सहज प्राकृतिक गुणों की और प्रेरित करने की बजाये नारी को भी भुलावे में डालकर उसी राह पर ज़बरदस्ती धकेला जा रहा है.
सच्चाई कडवी ही होती है समाज ना पुरुष प्रधान था ना स्त्री प्रधान. समाज परिवार प्रधान समाज था, और अभी भी है. लेकिन विकारों को आजादी का नाम देकर जिस तरह से अपनाये जाने की घिनोनी भेडचाल मची उससे सारा ढांचा ही भरभरा रहा है. विकार सब जगह मौजूद होते है. सहज प्राकृतिक गुणों से विचलन के ही परिणाम है यह सब. शायद लड़ाई अपने को एक अलग इकाई मानकर प्रभुत्व स्थापित करने मात्र की है.