॥ वेदान्तदशश्लोकी ॥
ज्ञानस्वरूपञ्च हरेरधीनं शरीरसंयोगवियोगयोग्यम् ।
अणुं हि जीवं प्रतिदेहभिन्नं ज्ञातृत्ववन्तं यदनन्तमाहुः ॥ १॥
जीव ज्ञान स्वरूप हैं और हरि के अधीन हैं। यह शरीर के संयोग और वियोग के योग्य हैं। यह अणु परिमाण वाला हैं। प्रत्येक देह में भिन्न और ज्ञाता जीव को श्रुतियाँ तथा महर्षिजन अनन्त कहते हैं।
जीव ज्ञान स्वरूप हैं। ज्ञान स्वाभाविक चैतन्य, नित्य एवं स्वयं ज्योति हैं। जिस प्रकार लवण बाहर व भीतर से रसमय हैं उसी प्रकार यह ज्ञान भी सब ओर से हैं। जैसे जलमय भी समुद्र जल का आधार हैं, वैसे ही जीव ज्ञान का आश्रय हैं। अतः यह "अहम" के अर्थ के रूप में ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता भी हैं। ज्ञान धर्म हैं। ज्ञात धर्मी हैं। धर्म और धर्मी का अविनाभाव संबंध होता हैं। जिस प्रकार सूर्यप्रभा सूर्य से पृथक नहीं रह सकती, उसी प्रकार धर्म व धर्मिरूप ज्ञानत्व व ज्ञातृत्व का भी अविनाभाव संबंध हैं। ज्ञाता ज्ञान से प्रकाशित होता हैं। देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और प्राण से विलक्षण यह जीव श्रीहरि के अधीन हैं। अतः सभी क्रियाकलापों में परतंत्र हैं। परिमाण में अणु अतीन्द्रिय, शरीर के साथ संयोग व वियोग के योग्य, प्रतिदेह में भिन्न और अनन्त जीव हैं। ऐसा वेदान्त वाक्य व महर्षिजन उपदेश करते हैं।
॥ श्रीमत्सुदर्शनचक्रावतारभगवन्निम्बार्कप्रणीता
वेदान्तदशश्लोकी - प्रथम श्लोक ॥