सोमवार, 14 नवंबर 2016

श्रीनिम्बार्काचार्य



श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य जयंती महोत्सव की हार्दिक बधाई।श्रीनिम्बार्काचार्य ने समस्त वैष्णव आचार्यों एव श्रीशंकराचार्य से पूर्व धर्म की लडखडाती ध्वजा को संभाल कर और ईश्वर भक्ति जो कर्मकाण्ड में ही उलझा दी गई थी को  "उपासनीयं नितरां जनैः" के घोष द्वारा सर्वजन के अधिकार की घोषित कर प्रत्येक जीव को - "ज्ञानस्वरूपञ्च हरेरधीनं" बताकर प्रत्येक मानव को ज्ञान का अधिकारी और श्रीहरि के आधीन घोषित किया।

श्रीनिम्बार्काचार्य ने  द्वैत और अद्वैत के खण्डन मण्डन की प्रवृत्तियों के प्रारम्भ से बहुत पूर्व वेदान्त में स्वाभाविक रूप से प्राप्त द्वैताद्वैत सिद्धांत को ही परिपुष्ट किया।  ब्रह्म के सगुण-निर्गुण,  साकार-निराकार सभी स्वरुप स्वाभाविक हैं। इनमें किसी एक के निषेध का अर्थ होता हैं ब्रह्म की सर्वसमर्थता, सर्वशक्तिमत्ता में अविश्वास करना।

अखिल ब्रह्माण्ड में जो हैं सब ब्रह्ममय ही हैं, ---
"सर्वं हि विज्ञानमतो यथार्थकंश्रुतिस्मृतिभ्यो निखिलस्य वस्तुनः |
ब्रह्मात्मकत्वादिति वेदविन्मतं त्रिरुपताअपि श्रुतिसुत्रसाधिता ||
श्रीनिम्बार्क के विचार में जगत भ्रम या मिथ्या नहीं, अपितु ब्रह्म का स्वाभाविक परिणाम है।
श्रुति और स्मृति वचनों से इसकी सिद्धि होती हैं।

कई लोग श्रीनिम्बार्काचार्य को श्रीशंकराचार्य के परवर्ती सिद्ध करने का प्रयास करते हैं उसके सन्दर्भ में तथ्यों का स्वयं परीक्षण ना करके कॉपी-पेस्ट करने की प्रवृति ज्यादा घातक हुई हैं।
आचार्य निम्बार्क ने ब्रह्मसूत्रों पर "वेदान्तपारिजात सौरभ" नामक सूक्ष्म भाष्य लिखा हैं।
आचार्य के भाष्य में बौद्ध-दार्शनिक "वसुबन्धु"(समय चौथी से पांचवी शती)  के अस्तित्व-वादी मत का उल्लेख हुआ हैं, और सिर्फ बौद्ध-जैन मत की आलोचना हुई हैं।
इसमें श्रीशंकराचार्य के मायावाद एवं अद्वैतवाद का खंडन नहीं हुआ हैं। उत्पत्यधिकरण सूत्र में आचार्य निम्बार्क ने "शक्ति कारणवाद" का खंडन किया हैं।  यदि वे आदिशंकराचार्य के परवर्ती होते तो उनके "व्यूहवाद-खंडन" का भी प्रतिवाद करते।  इसके विपरीत आदिशंकराचार्य जी ने आचार्य निम्बार्क के द्वैताद्वैत दर्शन की आलोचना की  हैं।
इतना ही नहीं श्रीनिम्बार्क के उत्तराधिकारी आचार्य श्रीनिवासाचार्य द्वारा निम्बार्कभाष्य की टीका "वेदान्त-कौस्तुभ-भाष्य" में भी कहीं आदिशंकर के मत की आलोचना नहीं प्राप्त होती, जबकि बौद्ध दार्शनिक विप्रबंधु (धर्मकीर्ति) (समय पांचवी से छठी शती) का उद्धरण उन्होंने अपनी टीका में दिया हैं।
आचार्य शंकर ने अपने ब्रह्मसूत्र और बृहदारण्यकोपनिषत् भाष्य में दोनों ही आचार्यों के उद्धरणों प्रयुक्त कर द्वैताद्वैत/भेदाभेद की आलोचना की हैं।
१. श्रीनिम्बार्क -> २. श्रीनिवासाचार्य -> ३. श्रीविश्वाचार्य के बाद ४. श्रीपुरषोत्तमाचार्य ने अपने "वेदान्त-रत्न-मञ्जूषा" नामक वृहद-विवरणात्मक भाष्य में सर्वप्रथम (निम्बार्क परंपरा मे)  श्रीशंकराचार्य के अद्वैतमत का प्रबल खंडन किया था।

वर्तमान में निम्बार्क सम्प्रदाय की पीठ सलेमाबाद, किशनगढ़ राजस्थान में स्थित हैं।  जिसकी स्थापना आचार्य श्रीपरशुरामदेव ने की थी।  विक्रम संवत १५१५ का उनके नाम से पट्टा तत्कालीन शासकों द्वारा दिया गया मौजूद हैं।
आचार्य परशुरामदेव श्रीनिम्बार्क से ३३ वीं पीठिका में थे।
उनके गुरु श्रीहरिव्यासदेव के गुरु श्रीभट्टदेवाचार्य की रचना "युगलशतक" के दोहे "नयन बाण पुनि राम शशि गनो अंक गति वाम।  प्रकट भये श्री युगलशतक यह संवत अभिराम।।"  से उनकी विद्यमानता विक्रम संवत १३५२ सिद्ध होती हैं।  इनके गुरु श्री केशव काश्मीरीभट्टदेवाचार्य हुए हैं जिनका काश्मीर निवास प्रसिद्द हैं।  श्रीभट्ट देवाचार्य अपने गुरु के सानिध्य में काश्मीर में ही अधिक रहे इसकी पुष्टि "तबाकते अकबरी भाग ३" से भी होती हैं।  तबाकाते अकबरी के अनुसार कश्मीर के शासक राजा उदल को पराजित कर सुलतान शमशुद्दीन ने कश्मीर में मुस्लिम शासन की शुरुवात की थी।  इसी शमशुद्दीन की आठवीं पीढ़ी में जैनूल आबदीन(शाही खान)  हुआ जो कला विद्या प्रेमी था।  इसके दरबार में श्रीभट्ट नामक पंडित का बड़ा सम्मान था जो बड़ा भारी कवि और भैषज कला में भी निपुण था।  श्रीभट्ट पंडित ने सुलतान को मरणांतक रोग से मुक्ति दिलाई थी तब श्रीभट्ट की प्रार्थना पर सुलतान ने अन्य ब्राह्मणों को जो उसके पिता सिकंदर द्वारा निष्काषित कर दिए गए थे पुनः अपने राज्य में बुला लिया था तथा जजिया बंद कर दिया था।  इसका शासन  काल वि. सं. १४३५ से १४८७ तक रहा।  इससे श्रीभट्टजी की विध्य्मानता वि. सं.१४४६ तक सिद्ध होती हैं।   वि. सं. १३५२ में उन्होंने युगलशतक पूर्ण किया जो की मध्य आयु में ही किया होगा।  इससे निष्कर्ष निकाल सकतें हैं की उनके गुरु श्री केशव काश्मीरीभट्टदेवाचार्य की विध्य्मानता वि. सं. १३०० से १४०० के आसपास तक रही।
इन्ही केशवदेव नें मथुरा में यवनों का दमन कर जन्मस्थान से मुस्लिमों के आतंक का शमन किया था।  "कटरा-केशवदेव"  इन्ही श्रीकेशवकाश्मीरीभट्टदेवाचार्य के नाम से प्रसिद्द हैं।  तथा वहां के कृष्ण जन्मभूमि मंदिर का गोस्वामी परिवार इन्हे अपना पूर्वज मानता हैं।  इससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती हैं।
भक्तमालकार नाभादास जी ने भक्तमाल में इनके सम्बन्ध में अपने पद में "काश्मीर की छाप" और मथुरा में मुस्लिम तांत्रिक प्रयोग के विरुद्ध प्रयोग का विशेष उल्लेख किया हैं।  जब तेरहवीं शताब्दी में ३० वीं पीठिका के आचार्य श्री केशव काश्मीरीभट्टदेवाचार्य की विध्य्मानता प्रमाणित होती हैं तब श्रीनिम्बार्काचार्य को श्रीरामानुजाचार्य यहाँ तक की कई विद्वान श्रीमध्वाचार्य जी के भी परवर्ती सिद्ध कर देते हैं।  जितने भी शोध इतिहास लिखे जा रहे हैं सब सिर्फ पूर्व पूर्व की किताबों को कॉपी पेस्ट कर लिख रहें हैं परस्पर विरुद्ध तथ्यों की अनदेखी कर।
श्रीनिम्बार्क के अनुयायी उन्हें द्वापरान्त में प्रकट हुआ बताते हैं।  और आपने जिस काल गणना का संकेत किया हैं उससे भी निम्बार्क के द्वापरान्त में विद्यमानता की ही पुष्टि होना सम्भाव्य हैं।

मंगलवार, 29 मार्च 2016

निज कृत करम भोगु सब भ्राता

आज से लगभग 20 वर्ष पहले की बात होगी।  ​प्रमोद अपनी राजदूत मोटरसाइकल से रात 9 बजे अपने कार्यस्थल से ​अपने घर वापस जा रहा था। 
​सर्दियों का समय था,सर्दियों में गाँवों में 7 बजते बजते सूनसान हो जाया करती हैं।  ​गाँव की सिंगल सूनसान रोड पर उसे दिखाई दिया कि एक मोटरसाइकल पेड़ से टकरा कर पड़ी है और साथ ही दो व्यक्ति खून से लथपथ पड़े हैं। उसने अपनी बाइक की लाइट के उजाले में देखा एक  तो उसके ही गाँव व्यक्ति था दूसरा पडोसी गाँव का। 
​उसने मोटरसाइकल से उतर कर उन्हें हिलाया डुलाया, दोनों के सर में चोट थी और काफ़ी खून बह रहा था। 
दोनों ज़िंदा थे लेकिन बेहोश।  गाँव वाले व्यक्ति से तो इनकी लड़ाई हो रखी थी आपस में आन-जान और बोलचाल भी बंद थी।  लेकिन इसके मन में एक पल को भी ये नहीं आया की इनकी सहायता ना करूँ या इन्हे कुछ हो गया तो शक मेरे ऊपर आयेगा। 
वह  तुरंत भागकर कुछ कदम की दूरी पर स्थित ढाणी में गया और आवाज लगाकर लोगों को बुलाया। 
कुछ महिलायें और बच्चे बाहर आये। 
स्थिति ये निकली की 5 घरों की उस ढाणी के सभी पुरुष वहाँ के एकमात्र वाहन ट्रेक्टर ट्रॉली सहित किसी बरात में गए हुए थे, तो न तो वहाँ कोई साधन था और ना कोई सबल सहायक। 
व्यक्ति ने  महिलाओं से उनकी चार पांच ओढ़निया ली और ​पाँच - छ:  किशोर ​-बालकों को साथ चलने के लिए
क​हा।   उसने कहा की तुम इन दोनों को मेरे पीछे बैठा दो और इन ओढणियों से कसकर मेरे बाँध दो।  मशक्कत पूर्वक ऐसा किया गया और वो उन दोनों ज़िंदा लोथ को 9 किलोमीटर दूर एक क्लिनिक पे जा पहुंचा। क्लिनिक के पीछे ही स्थित घर से डॉक्टर को बुलाया गया और उनका उपचार शुरू हुआ। डॉक्टर ने उसके साहस और युक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा की यदि ये रात भर ऐसे ही पड़े रहते तो खून के रिसाव और ठंढ के कारण ये वहीँ मर लेते।
​दोनों स्वस्थ होकर घर आ गए और इनके परिवारों में भी पुनः मेलजोल हो गया। 




अच्छी कहानी हैं ना ???
लेकिन कहानी अभी पूरी नहीं हुई। अब सत्रह बरस आगे चलिए।   11 नवम्बर 2012 धनतेरस के दिन  वही व्यक्ति अपने डीलरों से बकाया वसूली करके लिए बीकानेर/श्रीगंगानगर एरिया से ​ वापस लौट रहा था।
ड्राईवर साथ नहीं था तो इनोवा खुद ही चला रहा था। उस समय जयपुर-सीकर हाइवे पे फोर लेन बनाई जा रही थी।
जगह जगह ट्रैफिक डायवर्जन किया हुआ था, दोनों साइड के वाहन एक ही रोड पर आ जा रहे थे।  ये भी त्योंहार पे घर पहुँचने के उल्लास में गाडी चला रहा था, जयपुर अभी लगभग 52 किलोमीटर दूर था ज्यादा नहीं दूरी और ट्रैफिक के अनुपात से डेढ़ घंटे की ही दूरी थी। 
अरेरे यह क्या सामने से एक वीडियोकोच वाला डायवर्जन में  दनदनाता हुआ आता दिखा, इसने गाडी बाईं तरफ दबाई लेकिन उस साइड भी एक मोटरसाइकिल वाला था, साइड दबाते ही वो बाइक सहित नीचे खेत में कूद गया ये संभालता उससे पहले ही बस इसकी इनोवा को दायीं तरफ़ से पूरी छिलता हुआ घसीट गया।
एक धमाका हुआ और दिमाग सुन्न!!!!!!
आसपास के लोग दौड़े आये पचखड़े हुई गाडी से इसे निकाला, दायें हाथ की कोहनी और कंधे के बीच  हड्डी टूटकर मांस फाड़कर बाहर निकल आई थी नीचे दायें पाँव में भी जांघ की हड्डी टूटकर मांस और पैंट फाड़कर बाहर झाँकने लगी थी। दोनों जगह से बुरी तरह खून बहे जा रहा था।
तीन युवक गाडी का सारा सामान जिसमे कलेक्शन किये हुए पांच-सात लाख रुपये थे, सहित तुरंत अपनी स्कॉर्पियो में लिटा जयपुर रवाना हो गए। इसका शरीर और मन दोनों ही मजबूत हैं जहाँ लोग सोच रहे थे की ये आधे रस्ते में ही मर जाएगा इसे पूरा होश था।
युवकों ने इससे नंबर पूछकर इसके बड़े भाई को सूचित किया और कहा की आप तुरंत हॉस्पिटल की व्यवस्था कीजिये और बताइये कहाँ लेकर पहुंचना हैं। बड़े भाई ने डूबते मन से कहा एक बार संभव हो तो मेरी बात करवा दो। पट्ठे की हिम्मत और मानसिक मजबूती देखिये फोन पे भाई से कहा भाईजी बस हाथ और पाँव की हड्डी ही टूटी हैं और कुछ ख़ून बह रहा हैं बाकी मैं बिलकुल ठीक हूँ।  चिकित्सा राज्यमन्त्री इसके मित्र थे, भाई ने उन्हें फोन कर सारी स्थिति से अवगत कराया। SMS हॉस्पिटल की इमरजेंसी में तत्काल डॉक्टर तैनात हो गए, मन्त्री खुद पहुँच गए।  बेसब्री बढ़ती जा रही थी गाडी इमरजेंसी के बाहर रुकी इसे तुरंत अन्दर पहुँचाया गया, टीम ने इलाज शुरू किया दूसरे दिन ऑपरेशन हुआ, दिवाली अस्पताल में ही मनी, 20 दिन में बन्दा घर पहुंचा।
उधर मरीज के घर वाले उन युवकों के पाँव पड़ रहे थे वो परिवार के लिए साक्षात भगवद् दूत थे।
युवक मासूमियत से कैश सम्भलाते हुए भाइयों से कह रहे थे देख लीजिये/संभाल लीजिये। :)




रविवार, 20 मार्च 2016

भये मरद तैं रांड

जगद्गुरु श्रीनिम्बार्काचार्य श्रीहरिव्यासदेवाचार्य जी ने अपने श्रीमहवाणी जी में सेवा सम्बन्धी निर्देशन करते हुए कहा हैं --
"प्रातः काल उठि कै धार सखी को भाव।
जाय मिले निज रूप सौ याको यही उपाव।।"
श्रीयुगल उपासना के लिए सखी भाव हृदय में दृढ़ होना चाहिए, बाहरी लहंगा, चुनरी अथवा मेहँदी आदि कृत्रिम सखी स्वरुप धारण करने का निषेध करते हुए इसे परम निंदनीय पूज्य आचार्यश्री गण अपनी वाणी में बताते हैं।
इसी भाव को विस्तार देते हुए आपके पट्ट शिष्य आचार्य श्रीपरशुरामदेव अपने परसुरामसागर में निम्न निर्देशन करतें हैं। --
मैंधी मौली मनवसि, भये मरद तैं रांड।
परसा सेवै भामनि, भगत नाहिं वे भांड।।१।।
प्रेम भगति साधी नहीं, लागै भरम विकारि। 
परसा सेवै भामनि, भये पुरुष तैं नारि।।२।।
परसा परहरि स्वामिनी, भज्यो न केवल स्वामि। 
तौं तनकौं यौंही धर्यो, लाग्यो जीव हरामि।।३।।
परसा ब्रह्म अपार कौ, जपै जु अजपाजाप। 
भूलि गये हरि भगति कौ, लागौ सखी सराप।।४।।
मन मैं सखी सरुप कै, तन धारै ज्यौं दास। 
परसराम ता दास कैं, हिरदै जुगल निवास।।५।।

रविवार, 31 जनवरी 2016

"अघटित घटन, सुघट बिघटन, ऐसी बिरुदावली नहिं आन की।"

विनय पत्रिका में तुलसी बाबा हनुमानजी के लिए कहते हैं 
"अघटित-घटन, सुघट-बिघटन, ऐसी बिरूदावलि नहिं आनकी"
जो न घटने वाली घटना को घटा दे और जो घटना घटने वाली हो उसे विघटित कर दे ऐसा सामर्थ्य हनुमानजी का हैं !!!!!

और किसमें हैं ऐसा सामर्थ्य???
क्या स्वयं रामजी में भी नहीं!!!!!

काल सबको खाता हैं सब काल के वश में हैं लेकिन हनुमान जी महाकाल हैं।
काल स्वयं इनके वश में हैं इनके हाथ का खिलौना हैं  काल ---- "हाथ वज्र .........विराजे" वज्र मने काल 😊

दूसरे हनुमान जी इस प्रकृति से भी परे हैं।
क्योंकि इस प्रकृति प्रपंच को रघुनाथ जी ने गुण-दोष सहित रचा हैं, "सकल गुण दोषमय बिस्व कीन्ह करतार" 
संसार में ऐसा कोई नहीं जो सिर्फ़ गुणी हो या सिर्फ़ अवगुणी हो, गुण अवगुण दोनों ही सबमें रहतें है।
एक हनुमान जी में ही सिर्फ़ गुण ही गुण भरे हैं, "सकल गुण निधानम"।
क्योंकि जगन्माता जानकी जी ने ही इन्हें आशीर्वाद दिया हैं "........गुणनिधि, सुत होहु"
 इतना सुनकर तो प्रकृति भी मौन रह गई की अब तो हमारा भी कुछ बस नहीं हैं, अब तो
"अघटित घटन, सुघट बिघटन" समर्थ हनुमान जी हो गए हैं।
एक कारण और भी हैं, ऐसा सामर्थ्य तो परमेश्वर के अलावा और किसका हो सकता हैं, और हनुमान जी परमेश्वर हैं नहीं ये तो उनके दास हैं फिर उनका ऐसा बल कैसे हुआ???
सीधी सी बात हैं हनुमान जी का खुद का कोई बल हैं ही नहीं ;)  !!!!!!
क्या बात करते हो!!!    उनको "अतुलित बल धामं" कहा गया हैं और तुम कहते हो उनका कोई बल ही नहीं हैं!!!!

देखो भईया धाम कहते हैं घर/मन्दिर/तीर्थ को, तो हनुमान जी तो धाम हैं जिसमे बल रहता हैं और प्रभु से सम्बंधित स्थान को ही धाम कहा जाता हैं तो धाम हनुमानजी और धामी प्रभु का बल और बल तथा बलवान अलग अलग होते नहीं तो सारा सामर्थ्य हुआ रामजी का।
इसलिए "अघटित घटन, सुघट बिघटन, ऐसी बिरुदावली नहिं आन की।"
😊😊😊😊😊😊