जगद्गुरु श्रीनिम्बार्काचार्य श्रीहरिव्यासदेवाचार्य जी ने अपने श्रीमहवाणी जी में सेवा सम्बन्धी निर्देशन करते हुए कहा हैं --
"प्रातः काल उठि कै धार सखी को भाव।
जाय मिले निज रूप सौ याको यही उपाव।।"
"प्रातः काल उठि कै धार सखी को भाव।
जाय मिले निज रूप सौ याको यही उपाव।।"
श्रीयुगल उपासना के लिए सखी भाव हृदय में दृढ़ होना चाहिए, बाहरी लहंगा, चुनरी अथवा मेहँदी आदि कृत्रिम सखी स्वरुप धारण करने का निषेध करते हुए इसे परम निंदनीय पूज्य आचार्यश्री गण अपनी वाणी में बताते हैं।
इसी भाव को विस्तार देते हुए आपके पट्ट शिष्य आचार्य श्रीपरशुरामदेव अपने परसुरामसागर में निम्न निर्देशन करतें हैं। --
मैंधी मौली मनवसि, भये मरद तैं रांड।
परसा सेवै भामनि, भगत नाहिं वे भांड।।१।।
प्रेम भगति साधी नहीं, लागै भरम विकारि।
प्रेम भगति साधी नहीं, लागै भरम विकारि।
परसा सेवै भामनि, भये पुरुष तैं नारि।।२।।
परसा परहरि स्वामिनी, भज्यो न केवल स्वामि।
परसा परहरि स्वामिनी, भज्यो न केवल स्वामि।
तौं तनकौं यौंही धर्यो, लाग्यो जीव हरामि।।३।।
परसा ब्रह्म अपार कौ, जपै जु अजपाजाप।
परसा ब्रह्म अपार कौ, जपै जु अजपाजाप।
भूलि गये हरि भगति कौ, लागौ सखी सराप।।४।।
मन मैं सखी सरुप कै, तन धारै ज्यौं दास।
मन मैं सखी सरुप कै, तन धारै ज्यौं दास।
परसराम ता दास कैं, हिरदै जुगल निवास।।५।।
जय हो।
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