शनिवार, 10 अप्रैल 2010

मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधे:

आजकल  हर तरफ धर्म ही धर्म की चर्चा चल रही है, पूरा ब्लॉग जगत धर्ममय हो रहा है. मै भी खुद को इसी रंग में रंगना चाह रहा हूँ . पर डरता हूँ की कहीं अधर्म का रंग ना चढ़ जाए. इसलिए 2 -3 दिन  का ब्रेक भी लिया.काफी समझने की कोशिश की, कई किताबे उलटी-पलटी की धर्म क्या है ? इतना तो दिमाग में घुसा की धर्म के आगे पीछे कोई नाम नहीं है,कोई विशेषण नहीं है,केवल धर्म है , और भैया धर्म तो धर्म ही होता है,यदि वह धर्म है तो.
फिर शरण दाता भगवन के साक्षात् स्वरुप श्रीरामचरितमानस की शरण ली. उसमे धर्म की अनेक  परिभाषाये तुलसी बाबा ने बताई है ,जो पल्ले पड़ा आप के साथ बाँटना चाहता हूँ शुरुवात में इस चौपाई  पे ध्यान गया, यह सीधे सीधे धर्म के लिए तो नहीं बता रही लेकिन यह बहुत सूक्ष्म रूप से धर्म की सार्वभौम  परिभाषा मुझे लगी -

सचिव जो रहा धर्मरूचि जासू. भयौ बिमात्र बंधु लघु तासु (१-१७६-४)

धर्मरूचि का मतलब है जिसकी जो रूचि हो उसके मुताबिक उस परम सत्ता की उपासना करे , तो वह उसका धर्म है. कोई ईश्वर बोले,कोई अल्लहा बोले, कोई कैसे कोई कैसे .लेकिन यहाँ एक बात  ध्यान देने की है की यह उपासना प्रलोभन से ना हो,किसी को पीड़ित करके ना हो,किसी को परवश करके ना हो .
किसी को पीड़ित करके ,लोभ से ,परवश करके किसी पद्दति में रूचि लेने के लिए कहा जाए तो ये अधर्म है. और शायद कोई भी बुद्धिमान प्राणी इस बात से असहमत नहीं होगा.
पर कोई अपनी अपनी रूचि की उपासना का यह मतलब भी नहीं की जिसकी जो मर्जी हो वही धर्म है.धर्म की परिभाषा के लिए तो शास्त्र  ही प्रमाण है

धरमु न दूसर सत्य समाना , आगम निगम पुराण बखाना (२-९५-५)
सत्य के सामान कोई धर्म नहीं, सत्य धर्म है .

धर्म की दया सरिस हरिजाना (७-११२-१०)
दया के सामान कोई धर्म नहीं है .
"परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई"

परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा , पर निंदा सम अघ न गरीसा (७-१२१-२२)
अहिंसा के बराबर कोई परम धर्म नहीं है, इस बात से कौन  दुष्ट इनकार करेगा . कौन सा धर्म हिंसा  की छूट देगा ,और जो हिंसा की छूट दे तो उसको धर्म कैसे माना जाये .


क्या कोई भी बंधु धर्म की इन परिभाषाओ को नकार सकता है, अगर नकार सकता है तो अपना पक्ष रखें
बात धर्म की है किसी उपासना पद्दति की नहीं पिछली पोस्टों में  रिलिजन (उपासना पद्दति ) की बातें थी,
एक तरीके से माने तो हिन्दू शब्द जिस उपासना विधि का निर्देशन करता है, वह उपासना पद्दति इस सार्वभौम मानव धर्म से सबसे अधिक निकट पड़ती दिखाई देती है. इसलिए अगर हिन्दू उपासना पद्दत्ति  को धर्म भी  कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं है  

कोई समझे तो धर्म का मूल क्या है-

मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधे: (३-१-१)  
धर्म का मूल है शंकर और शंकर का कोई संकीर्ण मतलब ना निकाले,शंकर का मतलब है कल्याण .
बाकि तो जैसा जो समझे ,

समय काफी कम मिल पा रहा है विषय  जटिल है, अपने मन की भावनाओ को आपके सामने रखने की कोशिश करता रहूँगा.,कृपया मार्ग दर्शन करते रहिये .

3 टिप्‍पणियां:

  1. वर्तमान में धर्म विवादित हो चूका है अतः सम्हाल सम्हाल कर कदम रखने पड़ते हैं। लेकिन आज का युवा इस विषय पर इतना मनन इतना विचार करता है यह बात कम से कम मेरे दिल को बहुत सकून देती है। बंधु आप अपने अमूल्य समय का सदुपयोग मार्ग से भटके हुओको सही राह दिखने के लिए कर रहे है। अच्छा लगा।

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  2. फंटास्टिक बड़े भाईसाहब !!!
    क्या उचित है और क्या अनुचित है - इसकी व्याख्या धर्म है !

    !!!!! बस एक ही धुन जय-जय भारत !!!!!!!!

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  3. इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.

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