क्या वास्तव में हम विकसित हो रहें है, या हकीकत में विनाश के गर्त में डूबते जा रहे है ?
इस विषय पे खूब माथा-पच्ची की है, किसी एक बात पे मन ठहर ने को राजी नहीं हो पाता. लेकिन जब एक कहानी पढ़ी तो दिमाग की बत्ती जल उठी और एक झटके से दिमाग ने निर्णय सुना दिया की हम गर्त में जा रहे है. उसी टाइम मेरे मित्र प्रतुल जी ने भी ठीक इसी तरह के सवाल मेल से पूछ लिए. तो सोच क्यों ना आप से भी बाँट लूँ ये मन की बात .
आप खुद विचार करें पहले व्यक्ति की आवश्यकता कितनी सी थी रोटी कपडा और मकान. आज के हिसाब से तो ये बिलकुल बाबा आदम के ज़माने की जीवन शैली है, लेकिन क्या हम दावा कर सकते है की उनकी तुलना में हम ज्यादा सुखि है. सिर्फ आज की चकाचौंध ही असल विकास है या संतोषी जीवनशैली में सुख से जीवन यापन करना . क्या हर चकाचौंध के पीछे गहरा अन्धकार नहीं है, क्या पा लिया है हमने साइंस के विकास से जबकि हमारी शांति ही खो गयी है.
एक किसान था वह अपनी छोटे से खेत में खेती करता और अपना गुजरा चैन से करता था. एक दिन वह अपने खेत में बनी झोपडी के बाहर अपने बीवी बचों के साथ आराम से बैठा हंसी-मजाक कर रहा था. उसी टाइम वहाँ से उसका एक दोस्त निकला जो अब एक सफल बिजनेसमैन बन गया था . दोनों में राम-राम हुई आपस में हाल-चाल पूछा .
दोस्त ने किसान से पूछा गुजारा कैसा चल रहा है.
किसान बोला बरसात होती है तो खेती करता हूँ.साल भर का अनाज पैदा हो जाता है और मौज करते है बस और क्या .
अरे.....! इसमें पूरी जिन्दगी...! थोडा और काम करो . थोड़ी सिंचाई करो, थोडा अंग्रेजी खाद डालो ऐसा करो वैसा करो ....
किसान----- फिर क्या होगा ?
दोस्त -------साल में तुम दस -पंद्रह हजार अलग कमा लोगे . दो-चार बीघा जमीन और ले लेना.
किसान ----- फिर ??
दोस्त ------- फिर ज्यादा खेती होगी ज्यादा पैसा बचेगा, फिर थोडा पैसा किसी धंधे में लगा देना .
किसान------- अच्छा फिर.........!!!!
दोस्त--------- फिर पक्का मकान बना लेना, एक स्कूटर ले लेना.
किसान ------- फिर!!!!!!!!!!
दोस्त ---------- फिर धंदे को और फैलाना,काफी इनकम होगी अच्छा घर बनाना, अच्छी गाडी में घूमना.
किसान -------- फिर!!!!!!!!!!!!!!!!
दोस्त ---------- फिर क्या फिर तो काफी पैसे वाले हो जाओगे बैठकर आराम से मज़े करना बीवी बच्चों के साथ .
किसान बोला राम तेरा भला करे अभी क्या कर रहा हूँ ??? , जो इतना चैन बर्बाद करके फिर चैन की तलाश में मारा-मारा फिरूँ ??????
क्या हमारी हालत बिलकुल उस दोस्त के बताये अनुसार नहीं हो रही है.
अरबों- खरबों के मालिक क्या एक दिन भी चैन की बंशी बजा पाते है आप और हम तो क्या अंदाजा लगायें वे भापडे खुद ही ज्यादा जानते होंगे .
क्या आपको नहीं लगता की आज हम गर्त में जा रहे है. क्या पुरानी जीवन शैली से जीने वाले हमारे बडगे इतनी बिमारियों से जूझते थे, क्या उनकी जीवन शैली से ग्लोबल वार्मिंग फैलती थी , क्या उनकी जीवन शैली से धरती का संतुलन बिगड़ पाया था.
अगर नहीं तो क्या हमें यह नहीं मानना चहिये की हमारे पुरखे ज्यादा विकसित थे,ज्यादा उन्नत थे, अपने जीवन में.
और हम इस धरती-बिगाड़, मनख-मार जीवन शैली को विकास समझ अंधे हुए इसके पीछे भागे जा रहे है.
ठीक है की आज सिर्फ रोटी,कपडा और मकान से ही काम नहीं चलता . लेकिन ललित मोदी बनकर भी क्या हासिल हो जाता है.
जीवन शैली में बहुत बदलाव आया हैं और बीमारिया भी बढ़ी हैं कितनी नयी बीमारियाँ आई, सार्स, स्वैने फ्लू,
जवाब देंहटाएंविकास के नाम पर पर्यावरण को दूषित भी किया जा रहा हैं ,ये पृथ्वी हमारी हैं हमें इससे साफ़ रखना होगा अन्यथा एक दिन मानव का नामोनिशान मिटा देगी प्रकृति
bilkul sahi vichar rakhen hai aapne, par kya karen "YEH PYAAS HAI BADI"
जवाब देंहटाएंya hamesha "YE DIL MANGE MORE"
hi chalta hai aaj
kabhi naa mitne bali pyas hai ye
जवाब देंहटाएंdhnyvad
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
@ यशवंत जी ठीक कह रहे है आप प्रकति आखिर कितना झेलेगी
जवाब देंहटाएं@ पुष्पेन्द्र जी , चौरसिया जी वाकई में इस प्यास पे कंट्रोल करने का समय आ गया है
आने वाले कल को सुरक्षित करने के चक्कर में बीता हुआ कल तो हम बर्बाद कर ही चुके है,आज को भी बर्बाद करने पर तुले है!पता नहीं क्यों हम जानते है कि सुख सुविधाओं में नहीं है,संतोष में है;फिर भी सुविधाए जुटाने के चक्कर में घसीटते रहते है खुद को!अरे चक्कर में आराम कहा?चक्कर ही मिलेंगे!
जवाब देंहटाएंशायद अपने लिए नहीं,अपने परिवार और बच्चो को सुविधा देने के चक्कर में हम काफी कुछ भूल जाते है!
भाई साहब आप हर बार एक अलग विषय पर शब्द-कटार चलाकर जो मार-काट मचाये हुए हो,वो जबरदस्त है!
कुंवर जी,
अच्छी सामाजिक सोच को पूरी तरह ब्लॉग पर उतारती हुई इस रचना के लिए धन्यवाद / IPL ने BPL की मुश्किलें और बढ़ा दी है /थरूर जैसे और भी कई मंत्री हैं जिनके इस्तीफे की देश को अविलम्ब जरूरत है / इस देश में कानून और व्यवस्था को सुधारने के लिए ,पूरे देश को एक जुट होकर सत्यमेव जयते की रक्षा के लिए, सर पर कफ़न बांधना होगा /ऐसे ही प्रस्तुती और सोच से ब्लॉग की सार्थकता बढ़ेगी / आशा है आप भविष्य में भी ब्लॉग की सार्थकता को बढाकर,उसे एक सशक्त सामानांतर मिडिया के रूप में स्थापित करने में,अपना बहुमूल्य व सक्रिय योगदान देते रहेंगे / आप देश हित में हमारे ब्लॉग के इस पोस्ट http://honestyprojectrealdemocracy.blogspot.com/2010/04/blog-post_16.html पर पधारकर १०० शब्दों में अपना बहुमूल्य विचार भी जरूर व्यक्त करें / विचार और टिप्पणियां ही ब्लॉग की ताकत है / हमने उम्दा विचारों को सम्मानित करने की व्यवस्था भी कर रखा है / इस हफ्ते उम्दा विचार के लिए अजित गुप्ता जी सम्मानित की गयी हैं
जवाब देंहटाएंअमित भारत जैसे देश में यदि साठ के दशक से ही जनसंख्या पर काबू पाने की कोशिश की जाती तो देश की हालत कुछ और ही होती.. बढ़ती हुई जनसंख्या भी गृहयुद्ध की ओर धकेलने में मददगार हो रही है.. तुम्हारा लेख अच्छा है.. भौतिकता ने चैन लूट लिया है..
जवाब देंहटाएंKafi accha ishya uthaya hai aapne. hamen sawdhan hona hi padega
जवाब देंहटाएंहम इस धरती-बिगाड़, मनख-मार जीवन शैली को विकास समझ अंधे हुए इसके पीछे भागे जा रहे है.
जवाब देंहटाएंbilkul sahi kha
शायद अपने लिए नहीं,अपने परिवार और बच्चो को सुविधा देने के चक्कर में हम काफी कुछ भूल जाते है!
जवाब देंहटाएंबहुत सही बात लिखी है महोदय।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद एवं आभार
मरीचिका , यही शीर्षक है मेरे ब्लॉग का । जिसके प्रस्तावना मे मैने लिखा :
जवाब देंहटाएंमनुष्य जीवन भर मंजिल की तलाश में भागता है और मंजिल उससे दूर होती जाती है, जैसे जल की तलाश में मृग मरू भूमि में मरीचिका का अनुभव करता है, संत कबीर के शब्दों में : पानी में है मीन पियासी |
कहां जायेंगे , कहां पहुंचेगए पता नहीं ।
@ ठीक कहा कुंवरजी आपने "शायद अपने लिए नहीं,अपने परिवार और बच्चो को सुविधा देने के चक्कर में हम काफी कुछ भूल जाते है!"
जवाब देंहटाएं@ नागरिक जी बहुसंख्यक तो अभी भी भापडे जी जाण से लगे है, पर अल्लहा की देन कैसे रोक सकतें है
@ होनेस्टी प्रोजेक्ट डेमोक्रेसी, ऋतुपर्ण, रोहित , अमित, पाण्डेयजी धन्यवाद
जवाब देंहटाएं@ आदरणीय विजय प्रकाश सिंह जी यही मरीचिका तो खाए जा रही है हमें