बुधवार, 14 अप्रैल 2010

ओहो जमाल साहब फिर वही अधकचरी बात

ओहो जमाल साहब फिर वही अधकचरी बात-
सबसे पहले तो आपको और आप जैसे दुसरे बंधुओं को यह समझना आवश्यक है की "वेद" सिर्फ किसी किताब या मन्त्रों का ही नाम नहीं है. वेद का मतलब है ज्ञान और ज्ञान कभी आधा-अधुरा नहीं होता उसमें जीवन के संपूर्ण व्यवहारों का निरूपण होता है. वेद मानव को पुरषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति के सूत्र बतलाता है पुरषार्थ चतुष्टय तो जानते ही होंगे आप - "धर्म,अर्थ काम और मोक्ष". जब मानव मात्र का उद्देश्य ही ये चार पुरषार्थ निश्चित किये गए है तो,और इनको सम्यक रूप से किस प्रकार जीवन में प्राप्त किया जाये इसका निर्देशन वेद करता है.(याद रखिये "सम्यक रूप" से किसी भी तरह की अस्म्यकता का वेद निषेध करता है). और जब वेद जीवन को किस रूप में किस तरह जिया जाये का निर्देशन कर रहें है तो यह तो मुर्ख से मुर्ख प्राणी के भी समझ में आने वाली बात है की उसके हर मंत्र में "धर्म,अर्थ काम और मोक्ष" सम्बन्धी अर्थ निकलेंगे . यहाँ आप यह भी ध्यान रखिये की धर्म के साथ काम का वेद ने निषेद नहीं किया है,धर्म के साथ काम तो मानव के परम लक्ष्यों में शामिल है. लेकिन वही काम- क्रोध,मद,लोभ जैसे दुर्गुणों के साथ ताज्य है.
वेद सम्पूर्ण सत्य है,और सत्य को जो जिस भावना से देखेगा वोह उसको उसी रूप में दिखलाई देगा,ज्ञानमार्गी को ज्ञान,तो काममार्गी को काम
"जाकी रही भावना जैसे प्रभु मूरत तिन देखी तैसी"
जिसका जो स्वभाव होता है,उसको उसके प्रदर्शन का नाटक नहीं करना पड़ता ,क्योंकि व्यक्ति का असली स्वाभाव तो देर-सबेर उजागर हो ही जाता है. इसका अंदाजा तो ज्ञानीजन आपकी पोस्टो की शब्दावली और उनपे हमारी कमेंट्स की शब्दावली से अपने आप ही लगालेंगे.
यों काम विषयक शब्दों पे लजाने का तो सवाल ही नहीं है क्योंकि यह तो पुरषार्थ चतुष्टय की अंग है, लेकिन बात वही की उस काम का प्रयोग कहाँ और किस प्रकार हो रहा है, हम गर्भाधान संस्कार करतें है,तो वोह भी हमारा एक सम्यक रीती से निभाया जाने वाला धार्मिक संस्कार है. लेकिन आप जिस परम्परा का अनुगमन करतें है वहाँ काम, वासना की पूर्ति के लिए प्रयोग किया जाता है ,और उसके आवश्यक संस्कार के रूप में लिंगाग्र को कपडे से रगड़कर स्थंबन का स्वाभाव विकसित किया जाता है, ताकि चार चार प्रियतमाओं सहित खुद की भी वासना पूर्ति हो सके.
अब हर जगह वासना युक्त कामुक नजरों से देखने काही तो परिणाम है की आप तो भगिनी शब्द को भी स्त्री योनी से जोड़ बैठे. सोच सोच कर हैरान हूँ की कैसे आप की बुद्धि के घोड़े माँ-बहिनों के योंनांगो की शरण लेने लगतें है,आपके अहंकारी मन की बात को शब्द देने के लिए.

4 टिप्‍पणियां:

  1. कल अपने 'आतंकवादी भाई जान',सलीम खान,सुरेश जी और फिरदौस जी के नाम का सहारा ले रहे थे पाठको कि गिनती बढाने के लिए,और आज अपने 'डॉक्टर साहब' आपका!भाई इस्लाम है,मेरा मतलब सलाम है उनकी कोशिशो को.....



    कुंवर जी,

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  2. बुद्धि का ही फर्क है. ये तो वेदों में काम विषयक वर्णन पढ़ -सुनकर इस तरह चिहुंक पढते है जैसे 6-7 क्लास का स्टुडेंट 9 -10th और ऊपर के स्तर में पढाये जाने वाले जीव-विज्ञान के सब्जेक्ट पे दंग रह जाता है.

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  3. जैसे मिटी के कच्चे घडे में रखा हुआ जल कुछ समय बाद उस घडे को ही नष्ट कर डालता है,ठीक उसी प्रकार मूर्ख,मंदबुद्धि व्यक्ति को दिया हुआ गम्भीर शास्त्र ज्ञान भी उसके विनाश का ही कारण बन जाता है।
    इसलिए अमित शर्मा जी एक बात जान लीजिए कि गधों को पंजीरी खिलाने से कोई फायदा नहीं...पहले तो बेचारे उसे पचा ही नहीं पाएंगें अगर कहीं पचा भी ली तो ऊपर से एक ओर खतरा कि कहीं शूगर न हो जाए...भई कुछ रहम कीजिए इन बेचारे मूर्खाधिराजों पर :-)

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  4. पंडित पंजीरी की अच्छी बताई आपने. राम नवमी और जन्माष्टमी पे पंजीरी बनती है तो मेरी दादी जी हमारे घर के गाय-भैंसों को भी पंजीरी खिलाया करती है यह कहते हुए की प्रशाद से जीव की मुक्ति होती है तो अभी इस ज्ञान से शायद ये ना सुधरें पर अगले जन्म में क्या पता पूर्वजन्म की स्मृति स्वरुप इस ज्ञान की सहायता से मुक्ति पा जाये. और हमें तो सर्व्कल्याँ की भावना रखनी चहिये .

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