शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

हर किसी को "और" चाहिए......... यह दिल मांगे मोर .

आज अगर हम चारो ओर देखें तो कोई भी अपनी जिंदगी से संतुष्ट दिखाई ही नहीं देगा. हमारे पास जो है वह कम ही मालूम पड़ता है. हर किसी को  "और" चाहिए......... यह दिल मांगे मोर .
 

चाहे किसी प्राप्य को प्राप्त करने कि मेरी औकात नहीं होगी तो भी बस मैं उसके लिए छटपटाता रहूँगा, बस एक धुन सवार हो जाएगी कि बस कैसे भी हो मुझे यह हासिल करना है. 
अरे भाई हासिल करना है, तक तो ठीक है पर यह लोभ इतना भयंकर हो जाता है कि फिर ना किसी मर्यादा कि परवाह.........  जाये चाहे सारे कानून-कायदे भाड़ में. 

और आज चारों तरफ देख लीजिये कि जो मर्यादाओं को तार -  तार किये दें रहें है उन्ही की यश-गाथाएं गाई जाती है. हम सब इस लोभ के मोह में वशीभूत हुए वहशीपन कि हद तक गिर चुके है. किसी भी नैतिक प्रतिमान को तोड़ने में हमें कोई हिचक नहीं होती.
  या फिर आप खड़े रहिये नैतिकता का झुनझुना लिए, कोई आपके पास फटकेगा भी नहीं.  
ना तो कर्म-अकर्म कि भावना रही ना उनके परिणामों कि चिंता. और चिंता होगी भी क्यों हमारे सारे सिद्धांतो को तो हम तृष्णा के पीछे भागते कभी के बिसरा चुके हैं.  अहंकार आदि सभी तरीके के नशों को दूर करने वाले धर्म को ही अफीम कि गोली मानकर कामनाओं कि नदी में प्रवाहित कर चुकें है. 
यह लोभ जब तृष्णा को जन्म देता तब उसी के साथ साथ ही जीवन में ईष्र्या का भी प्रवेश हो जाता है.  तृष्णा में राग की प्रचुरता होती है. द्वेष ईर्ष्या कि  जड़ में दिखाई पड़ता है. आज कल जितना भी अनाचार, भ्रष्टाचार  चारो तरफ देखने में मिल रहा है, वह इसी अदम्य तृष्णा या मानव मन में व्याप्त अतृप्त भूख का परिणाम है. पेट की भूख तो एक हद के बाद मिट  जाती है, पर यह तृष्णा जितनी पूरी करो उतनी ही बढती जाती है.
 जब हम तृष्णाग्रस्त होतें तो हमारे मन पर ईष्र्या का आवरण पड़ जाता है. हमें  "चाहिए" के अलावा कोई दूसरी चीज समझ में ही नहीं आती है.  चाहिए भी येन-केन-प्रकारेण. जीवन के हर क्षेत्र में स्पर्धा ही स्पर्घा दिखाई देती है. यह स्पर्धा कब प्रतिस्पर्धा बनकर हमारे जीवन कि सुख शान्ति को लील जाती है हमें पता ही नहीं चलता है. और प्रतिस्पर्धा भी खुद के विकास कि नहीं दूसरे के अहित करने कि हो जाती है दूसरों के नुक्सान में ही हम अपना प्रगति पथ ढूंढने लगें है. खुद का विकास भूल कर आगे बढ़ने के लिए दूसरों के अहित कि सोच ही तो राक्षसी प्रवत्ति है. इस आसुरी सोच के मारे हम खुद को तुर्रम खाँ समझने लगते हैं. खुद को सर्वसमर्थ मान दूसरों के ललाट का लेखा बदलने का  दु:साहस भी करने लगतें है. 
याहीं हम चूक कर बैठतें है जो क्षमता प्रकृति ने हमको दी, जो वातावरण जीने के लिए उसे मिला, उसे ठुकरा कर जीने का प्रयास कर लेना महत्वाकांक्षा और अहंकार का ही रूप है. किसी दूसरे के भाग्य में आमूलचूल परिवर्तन तो हम ला भी नहीं पाते उलटे हमारा खुद का विकास भी अवरुद्ध कर बैठते है. बस सारी उर्जा इसी में निकल जाती है.  इसी अहंकार के मारे क्रोध उपजता है और कौन नहीं जानता कि क्रोध से हम अपना ही कितना नुक्सान कर बैठते है.
बाकि अब ज्यादा क्या लिखा जाए यह तो अपने खुद के समझने कि चीज है, जबकि तुलसी बाबा भी कह गए है >>>>>>

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पन्थ ।
सब परिहरि रधुबीरहि भजहू भजहि जेहि सन्त ।।

24 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्‍छी और सच्‍ची प्रस्‍तुति !!

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  2. ज्यादा कि चाह रखना बुरा नहीं है अगर आवश्यकता से ज्यादा लेकर उसे अपने से कमतर लोगों में बात दिया जाय पर ऐसा होता कहाँ है.

    अच्छा लिखा.

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  3. अमित जी,
    अपरिग्रह का नियम आप जानते ही होंगे। अपनी आवश्यकता से अधिक का संग्रह करना भी अपराध श्रेणी में मानते रहे हैं पहले समय में। लेकिन अब संस्कार, शिक्षा सब बदल रहा है - कल तक जो खासियतें थी वे आज कमियां मानी जाती हैं। शायद हारलिक्स का विज्ञापन आता था कुछ समय पहले तक ’डोंट बी सीधा सादा’ - लो मजे।
    और और से पेट तो शायद भर जाये, मन नहीं भरता।
    बहुत खूबसूरत विचार।
    शुभकामनायें।

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  4. .
    हमारी मेक्स कम्पनी का स्लोगन है "करो ज़्यादा का इरादा"
    तो सभी अधिकारीगण हर वर्ष ज़्यादा के इरादे से ही हाय-तौबा मचाये रहते हैं. "मेरा कम है, मेरा कम है."

    संस्कृत के एक सुभाषित में आया है "आशा को गतः" आशा का कहीं अंत नहीं.
    यदि इस सुभाषित का आधुनिक अर्थ करूँ तो यही होगा :
    राव घोटाले वाला चाहता है कि वह लालू घोटाला करे.
    'लालू' वाला चाहता है कि वह कोमनवेल्थ करे.
    कोमनवेल्थ वाला चाहता है कि वह शीघ्रताशीघ्र अमीरियत में अव्वल आये.
    अमीरियत में अव्वल आने वाला चाहता है कि वह ही अव्वल रहे.
    इसी के लिये वह (सभी) भाग-दौड़ करता दिखायी देता है.
    _______________
    राव = १ करोड़
    लालू = १०० करोड़
    कोमनवेल्थ = असीमित संख्या [राशि पता नहीं]

    .

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  5. .
    कोमनवेल्थ उदघाटित हो तो शायद नाम निकल आये
    तब घोटाले का पुनः नामकरण होगा. .......... कलमाडी / शीला या फिर कोई और ........

    कलमाडी मतलब 'जहाँ संख्या लिखते-लिखते कलम अड़ जाए / या टूट जाए अर्थात असीमित संख्या का घोटाला'.
    शीला का नया रूढ़ अर्थ बनाने की सोच रहा हूँ लेकिन .......... अभी नहीं....... बाद में कभी.

    .

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  6. अमित जी,

    यथार्थ निष्कर्ष:
    "अहंकार आदि सभी तरीके के नशों को दूर करने वाले धर्म को ही अफीम कि गोली मानकर कामनाओं कि नदी में प्रवाहित कर चुकें है."

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  7. अमित जी,

    यश-लोलुपता पद-लोलुपता, सताये न कभी विकार वृथा।
    ईष्या-मत्सर अभिमान तजें तो, सुख पाएं हम सर्वथा॥

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  8. प्रवचन का पठनीय संस्करण -आनंदमय !

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  9. बढ़िया सामयिक लेख ...सुविधाएं ...और सुविधाएँ ...ऐश्वर्य और नाम सब चाहिए !
    यह राक्षसी प्रवृत्ति आज चहुँ और उजागर है ! मर्यादा, संस्कार और आत्मसम्मान लगता है पुराने युग की बातें हो गयी हैं !

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  10. इसी मोरे के शौक ने ही तो हम सबको चोर बना दिया है. लोभ का कोई इलाज नहीं.

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  11. ‘और‘ की इच्छा करना मानवीय कमजोरी है।

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  12. अमित जी, सरकारी रवैये ने इस दौड़ को चरम पर पहुंचा दिया है. पूरी तरह से सरकारें ही दोषी हैं. आज आम आदमी एक जनम की कमाई से घर नहीं खरीद सकता. नैतिकता का अचार डालेगा क्या...

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  13. इच्छा अनन्त है ,नियंत्रण करना होगा ।सार्थक लेख ।

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  14. अमित भाई , मैंने कहीं पढ़ा था लेखक का नाम याद नहीं आ रहा , लेकिन कोट अच्छा है , यहाँ पर बहुत ही मौजूं है :

    There is enough for every ones need but not enough for one man's greed.

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  15. प्रभावपूर्ण एवं प्रेरक आलेख|
    "लाख जतन कर डाले, ज़िन्दगी संवर जाये|
    बात पर बनी न कुछ, उल्टे जाँ पर बनी||"
    - अरुण मिश्र.

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  16. भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता, तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
    कालो न यातो वयमेव यता, तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥
    -भृतहरि

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  17. महाभारत धर्म युद्ध के बाद राजसूर्य यज्ञ सम्पन्न करके पांचों पांडव भाई महानिर्वाण प्राप्त करने को अपनी जीवन यात्रा पूरी करते हुए मोक्ष के लिये हरिद्वार तीर्थ आये। गंगा जी के तट पर ‘हर की पैड़ी‘ के ब्रह्राकुण्ड मे स्नान के पश्चात् वे पर्वतराज हिमालय की सुरम्य कन्दराओं में चढ़ गये ताकि मानव जीवन की एकमात्र चिरप्रतीक्षित अभिलाषा पूरी हो और उन्हे किसी प्रकार मोक्ष मिल जाये।
    हरिद्वार तीर्थ के ब्रह्राकुण्ड पर मोक्ष-प्राप्ती का स्नान वीर पांडवों का अनन्त जीवन के कैवल्य मार्ग तक पहुंचा पाया अथवा नहीं इसके भेद तो परमेश्वर ही जानता है-तो भी श्रीमद् भागवत का यह कथन चेतावनी सहित कितना सत्य कहता है; ‘‘मानुषं लोकं मुक्तीद्वारम्‘‘ अर्थात यही मनुष्य योनी हमारे मोक्ष का द्वार है।
    मोक्षः कितना आवष्यक, कैसा दुर्लभ !
    मोक्ष की वास्तविक प्राप्ती, मानव जीवन की सबसे बड़ी समस्या तथा एकमात्र आवश्यकता है। विवके चूड़ामणि में इस विषय पर प्रकाष डालते हुए कहा गया है कि,‘‘सर्वजीवों में मानव जन्म दुर्लभ है, उस पर भी पुरुष का जन्म। ब्राम्हाण योनी का जन्म तो दुश्प्राय है तथा इसमें दुर्लभ उसका जो वैदिक धर्म में संलग्न हो। इन सबसे भी दुर्लभ वह जन्म है जिसको ब्रम्हा परमंेश्वर तथा पाप तथा तमोगुण के भेद पहिचान कर मोक्ष-प्राप्ती का मार्ग मिल गया हो।’’ मोक्ष-प्राप्ती की दुर्लभता के विषय मे एक बड़ी रोचक कथा है। कोई एक जन मुक्ती का सहज मार्ग खोजते हुए आदि शंकराचार्य के पास गया। गुरु ने कहा ‘‘जिसे मोक्ष के लिये परमेश्वर मे एकत्व प्राप्त करना है; वह निश्चय ही एक ऐसे मनुष्य के समान धीरजवन्त हो जो महासमुद्र तट पर बैठकर भूमी में एक गड्ढ़ा खोदे। फिर कुशा के एक तिनके द्वारा समुद्र के जल की बंूदों को उठा कर अपने खोदे हुए गड्ढे मे टपकाता रहे। शनैः शनैः जब वह मनुष्य सागर की सम्पूर्ण जलराषी इस भांति उस गड्ढे में भर लेगा, तभी उसे मोक्ष मिल जायेगा।’’
    मोक्ष की खोज यात्रा और प्राप्ती
    आर्य ऋषियों-सन्तों-तपस्वियों की सारी पीढ़ियां मोक्ष की खोजी बनी रहीं। वेदों से आरम्भ करके वे उपनिषदों तथा अरण्यकों से होते हुऐ पुराणों और सगुण-निर्गुण भक्ती-मार्ग तक मोक्ष-प्राप्ती की निश्चल और सच्ची आत्मिक प्यास को लिये बढ़ते रहे। क्या कहीं वास्तविक मोक्ष की सुलभता दृष्टिगोचर होती है ? पाप-बन्ध मे जकड़ी मानवता से सनातन परमेश्वर का साक्षात्कार जैसे आंख-मिचौली कर रहा है;
    खोजयात्रा निरन्तर चल रही। लेकिन कब तक ? कब तक ?......... ?
    ऐसी तिमिरग्रस्त स्थिति में भी युगान्तर पूर्व विस्तीर्ण आकाष के पूर्वीय क्षितिज पर एक रजत रेखा का दर्शन होता है। जिसकी प्रतीक्षा प्रकृति एंव प्राणीमात्र को थी। वैदिक ग्रन्थों का उपास्य ‘वाग् वै ब्रम्हा’ अर्थात् वचन ही परमेश्वर है (बृहदोरण्यक उपनिषद् 1ः3,29, 4ः1,2 ), ‘शब्दाक्षरं परमब्रम्हा’ अर्थात् शब्द ही अविनाशी परमब्रम्हा है (ब्रम्हाबिन्दु उपनिषद 16), समस्त ब्रम्हांड की रचना करने तथा संचालित करने वाला परमप्रधान नायक (ऋगवेद 10ः125)पापग्रस्त मानव मात्र को त्राण देने निष्पाप देह मे धरा पर आ गया।प्रमुख हिन्दू पुराणों में से एक संस्कृत-लिखित भविष्यपुराण (सम्भावित रचनाकाल 7वीं शाताब्दी ईस्वी)के प्रतिसर्ग पर्व, भरत खंड में इस निश्कलंक देहधारी का स्पष्ट दर्शन वर्णित है, ईशमूर्तिह्न ‘दि प्राप्ता नित्यषुद्धा शिवकारी।31 पद
    अर्थात ‘जिस परमेश्वर का दर्शन सनातन,पवित्र, कल्याणकारी एवं मोक्षदायी है, जो ह्रदय मे निवास करता है,
    पुराण ने इस उद्धारकर्ता पूर्णावतार का वर्णन करते हुए उसे ‘पुरुश शुभम्’ (निश्पाप एवं परम पवित्र पुरुष )बलवान राजा गौरांग श्वेतवस्त्रम’(प्रभुता से युक्त राजा, निर्मल देहवाला, श्वेत परिधान धारण किये हुए )
    ईश पुत्र (परमेश्वर का पुत्र ), ‘कुमारी गर्भ सम्भवम्’ (कुमारी के गर्भ से जन्मा )और ‘सत्यव्रत परायणम्’ (सत्य-मार्ग का प्रतिपालक ) बताया है।
    स्नातन शब्द-ब्रम्हा तथा सृष्टीकर्ता, सर्वज्ञ, निष्पापदेही, सच्चिदानन्द , महान कर्मयोगी, सिद्ध ब्रम्हचारी, अलौकिक सन्यासी, जगत का पाप वाही, यज्ञ पुरुष, अद्वैत तथा अनुपम प्रीति करने वाला।
    अश्रद्धा परम पापं श्रद्धा पापमोचिनी महाभारत शांतिपर्व 264ः15-19 अर्थात ‘अविश्वासी होना महापाप है, लेकिन विश्वास पापों को मिटा देता है।’
    पंडित धर्म प्रकाश शर्मा
    गनाहेड़ा रोड, पो. पुष्कर तीर्थ
    राजस्थान-305 022

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  18. ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
    आपको, आपके परिवार और सभी पाठकों को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं ....
    ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

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  19. अमित जी आभारी हूँ आपका
    अर्थ न धर्म न काम रूचि और न चहू निर्वान
    जन्म जन्म मोहि राम पद यह वरदान न आन

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  20. अमित बाबू,
    आपकी उम्र के न जाने कितने ही युवा आज भटकाव के शिकार होकर बर्बादी की दहलीज़ पर खड़े हैं, ऐसे में आपको चिंतन-मनन के धरातल पर खड़ा देखकर सुखद अनुभूति हुई!

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  21. विज्ञप्ति०
    ‘मुक्तक विशेषांक’ हेतु रचनाएँ आमंत्रित-
    देश की चर्चित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक त्रैमासिक पत्रिका ‘सरस्वती सुमन’ का आगामी एक अंक ‘मुक्‍तक विशेषांक’ होगा जिसके अतिथि संपादक होंगे सुपरिचित कवि जितेन्द्र ‘जौहर’। उक्‍त विशेषांक हेतु आपके विविधवर्णी (सामाजिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक, धार्मिक, शैक्षिक, देशभक्ति, पर्व-त्योहार, पर्यावरण, श्रृंगार, हास्य-व्यंग्य, आदि अन्यानेक विषयों/ भावों) पर केन्द्रित मुक्‍तक/रुबाई/कत्अ एवं तद्‌विषयक सारगर्भित एवं तथ्यपूर्ण आलेख सादर आमंत्रित हैं।

    इस संग्रह का हिस्सा बनने के लिए न्यूनतम 10-12 और अधिकतम 20-22 मुक्‍तक भेजे जा सकते हैं।

    लेखकों-कवियों के साथ ही, सुधी-शोधी पाठकगण भी ज्ञात / अज्ञात / सुज्ञात लेखकों के चर्चित अथवा भूले-बिसरे मुक्‍तक/रुबाइयात/कत्‌आत भेजकर ‘सरस्वती सुमन’ के इस दस्तावेजी ‘विशेषांक’ में सहभागी बन सकते हैं। प्रेषक का नाम ‘प्रस्तुतकर्ता’ के रूप में प्रकाशित किया जाएगा। प्रेषक अपना पूरा नाम व पता (फोन नं. सहित) अवश्य लिखें।

    इस विशेषांक में एक विशेष स्तम्भ ‘अनिवासी भारतीयों के मुक्तक’ (यदि उसके लिए स्तरीय सामग्री यथासमय मिल सकी) भी प्रकाशित करने की योजना है।

    चूँकि अभी तक मुक्तक-संसार को समीक्षात्मक दृष्टि से खँगाला नहीं गया है, अतः इस दिशा में पहल की आवश्यकता महसूस करते हुए भावी शोधार्थियों की सुविधा के लिए मुक्तक संग्रहों की संक्षिप्त परिचयात्मक टिप्पणी/समीक्षा सहित संदर्भ-सूची तैयार करने का कार्य भी प्रगति पर है।इसमें शामिल होने के लिए कविगण अपने प्रकाशित मुक्तक/रुबाई के संग्रहों की प्रति प्रेषित करें! प्रति के साथ समीक्षा भी भेजी जा सकती है।

    प्रेषित सामग्री के साथ फोटो एवं परिचय भी संलग्न करें। समस्त सामग्री केवल डाक या कुरियर द्वारा (ई-मेल से नहीं) निम्न पते पर अति शीघ्र भेजें-

    जितेन्द्र ‘जौहर’
    (अतिथि संपादक ‘सरस्वती सुमन’)
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