आज पवित्रा एकादशी की आप सभी को मङ्गल बधाई !
प्राणधन योगेश्वर श्रीकृष्ण के जन्ममहोत्सव में 12 दिन शेष हैं। श्रीकृष्ण के वाङ्ग्मय स्वरुप श्रीमद्भागवत में भी बारह स्कंध हैं। जिसमे श्रीकृष्ण के अवतार लीलाओं के बहाने से भक्ति-ज्ञान-वैराग्य की स्थापना की गई हैं।
श्रीमद्भागवत घोषणा करती हैं - "कृष्णस्तु भगवान् स्वयं"
इस सूत्र को आगे पकड़ेंगे परन्तु पहले एक धारणा को मार्जित करना हैं। धारणा यह कि श्रीकृष्ण का प्राकट्य कंस के कारागृह में हुआ। कारागृह नाम से हमारे मन में छवि आती हैं एक साधारण कमरें की जिसकी तीन दीवार हैं ऊपर एक छत, एक दीवार में छोटा सा उजाल-दान और चौथी दीवार के स्थान पर लौहे के सरियों से बना द्वार। ऐसा एक कमरा या ऐसे कमरों का समूह, कारागार और वहां सुरक्षा प्रहरी जेलर यह एक कारागृह की वास्तविक स्थिति हैं।
अब ऐसी स्थिति में सभी के मन में कौतुक अवश्य जागता हैं की इस प्रकार सबके सामने वसुदेव-देवकी कैसे संसर्ग करते होंगे और क्यों करते होंगे ?
कई कालनेमि उपहास पूर्वक कहते हैं - "देवकी-वसुदेव भी पक्के धुनी थे, और कारागार में वी.वी.आई.पी. ट्रीटमेण्ट था।
जेल में आठ आठ बच्चे पैदा कर लिये । कमाल है। और मानो कंस मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष भी था, वसुदेव को जेल में भी यौनाचार की सुविधा दे दी।"
साधारण जन की कौतुक जिज्ञासा तथा अपने को ही वास्तविक ब्रह्मज्ञान के अधिष्ठाता कहने वाले अभिमानी कालनेमि लोगों का प्रलाप सहज ही हैं। क्योंकि साधारण जन दुर्भाग्य से मूल ग्रंथों का वास्तविक अध्ययन नहीं करते और कालनेमि अध्ययन करके वास्तविकता छिपाकर वितण्डा फैलाते हैं।
कालनेमि के बारे में भली भाँति जानते ही आप, वह राक्षस आञ्जनेय को पथ से विचलित करने के लिए साधु रूप धारण कर बैठ गया।
लेकिन ऐसे लोगों का भांडा जल्द ही फूटता हैं।
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥
कालनेमि अपनी गति पाएंगे परन्तु हम साधारण जन तो एक प्रयास अपने ग्रंथों को मूल से देखकर समझने का कर ही सकते हैं।
कथा अनुसार वसुदेवजी विवाह करके अपने घर आने के लिए नवविवाहिता स्त्री देवकी के साथ रथ पर सवार हुए। उग्रसेन का पुत्र अपनी चचेरी बहन के वात्सल्य वश स्वयं उनके रथ का सारथ्य करने लगा। मार्ग में आकाश वाणी द्वारा ये बताने पर कि देवकी का आठवाँ पुत्र तेरा काल होगा तो वह देवकी की हत्या करने लगता हैं तब वसुदेव जी यह कहकर कि "इसके पुत्रों से ही तुम्हें भय हैं तो मैं इसके सारे पुत्र तुम्हें समर्पित करूँगा। " तब वसुदेव जी के वचन को मानकर कंस ने उन्हें जाने दिया।
वासुदेव-देवकी जी भी प्रसन्नतापूर्वक अपने घर गये -
"वसुदेवोऽपि तं प्रीतः प्रशस्य प्राविशद्गृहम्" भा० १०/०१/५५
तदन्तर समयानुसार प्रथम पुत्र उत्पन्न होने पर वसुदेवजी उस "कीर्तिमान" नामक पुत्र को ले जाकर कंस को सौंप दिया। इस सत्यनिष्ठा से प्रसन्न कंस ने यह सोचकर कि काल तो आठवाँ होगा उस बालक को लौटा दिया। वसुदेवजी बालक को लेकर घर आ तो गए परन्तु उन्हें उस पर विश्वास नहीं हुआ। उसी समय अस्थिर मति कंस ने तुरंत उन दोनों को अपने ही घर में बंदी बना दिया। और उनके जो पुत्र उत्पन्न होने लगे उन्हें अपनी मृत्यु का कारण मानकर एक एक को मारने लगा --
देवकीं वसुदेवं च निगृह्य निगडैर्गृहे।
जातं जातमहन्पुत्रं तयोरजनशङ्कया । । भा० १०/०१/६६
कंस जब देवकीजी के छः पुत्रों की हत्या कर चुका और सातवें गर्भ को यथाविधि संकर्षित कर रोहिणीजी गर्भ में स्थापित कर दिया गया तब समय आने पर भक्तों को अभय देने वाले भगवान्, वसुदेव के मन में प्रविष्ट हो वसुदेवजी द्वारा देवकीजी में स्थापित हुये।
जैसे घड़े के भीतर दीपक की सुंदर ज्योति और ज्ञान छुपाने वाले मनुष्यों के मन में जैसे ज्ञान छिपा रहता हैं वैसे ही देवकी घर में बंदी थी -
"भोजेन्द्रगेहेऽग्निशिखेव रुद्धा सरस्वती ज्ञानखले यथा सती" भा० १०/०२/१९
एक दिन कंस देवकी के प्रकाश से उस घरको प्रकाशित देखकर कहने लगा कि, निश्चय ही मेरे प्राणों का नाश करने वाला विष्णु ही इसके गर्भ में प्रकट हुआ हैं। क्योंकि पहले कभी देवकी के प्रकाश से यह घर ऐसा प्रकाशित नहीं हुआ।" - -
तां वीक्ष्य कंसः प्रभयाजितान्तरां
विरोचयन्तीं "भवनं" शुचिस्मिताम्
आहैष मे प्राणहरो हरिर्गुहां
ध्रुवं श्रितो यन्न पुरेयमीदृशी भा० १०/०२/२०
श्रीकृष्ण के प्राकट्य के बाद वसुदेवजी भगवान् को गोकुल में नंदराय जी के यहाँ पहुंचा कर उनकी कन्या को लेकर पुनः "घर" में प्रवेश किया -
सुतं यशोदाशयने निधाय तत्
सुतामुपादाय "पुनर्गृहानगात्" भा० १०/०३/५१
श्रीमद्भागवत के इन वर्णनों से स्पष्ट हैं की श्रीकृष्ण का प्राकट्य साधारण कारागार नहीं हुआ था। अपितु घर को ही कारागृह का रूप दिया गया था। श्रीवसुदेव - देवकी घर में ही बंदी थे उन्हें साधारण बंदियों की भाँती कारागार में नहीं डाला गया था। वे अपने घर से बाहर नहीं निकल सकते थे। घर से भी किसी प्रकार भाग ना निकलें इसलिए बेड़ी बंधन भी था। इसके आलावा निजगृह में थे यही सबसे बड़ा सुख था।
तो इस शंका का कोई स्थान नहीं हैं कि वसुदेव-देवकी ने कारागृह में सबके सामने कैसे आठ संतान पैदा कर डाली।
अपने ग्रंथों को पढ़िये मूल समझिये तब ऐसी शंका दिमाग में घर नहीं करेगी तथा कालनेमियों के प्रभाव से भी बच पाएंगे।
बोलिये वसुदेव-देवकी नंदन सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण की जय !!!!!
''कृष्णं सर्वेश्वरं देवमस्माकं कुलदैवतम्''
वसुदेव-देवकी नंदन सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण की जय
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