रविवार, 13 अगस्त 2017

कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् - 3




पिछली कड़ी में श्रीभगवान के अवतार प्रकारों को समझकर यह मत निश्चित होता हैं कि -
"कृष्णस्तु भगवान् स्वयं " 
सत्य ही हैं।
तो अब आगे जिज्ञासा होती हैं कि उनका अवतरण कैसे होता हैं। उनकी देहादि भी क्या पंचभौतिक होती हैं। और उनका अवतरित स्वरुप नित्य हैं अथवा अनित्य। सबसे पहले तो इन प्रश्नों का उत्तर हमें आपस में ना पूछकर स्वयं श्रीभगवान से ही पूछना चाहिए।  और पूछना भी क्या हैं वे तो स्वयं बता दिए हैं -
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌ । 
                  प्रकृतिं  स्वामधिष्ठाय  सम्भवाम्यात्ममायया ॥ (श्रीमद्भगवद्गीता 4/6)
मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ। 

अवतरण कैसे होता हैं के लिए बताते हैं - "जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं"
अपने स्वरूप में पंचभौतिक कल्पना के लिए भी स्वयं ही निरूपण करतें हैं -
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् |
                      परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्र्वरम् || (श्रीमद्भगवद्गीता 9/11)
मूर्ख लोग मेरे संपूर्ण प्राणियों के महान ईश्वरूप परमभाव को न जानते हुए मुझे मनुष्य शरीर के आश्रित मानकर अर्थात साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं।

चूँकि वे सर्वेश्वर हैं, सर्वसमर्थ हैं इस लिए यह कहना की परमात्मा तो निर्गुण-निराकार हैं, वह मनुष्य अथवा किसी भी रूप में कैसे जन्म ले सकता हैं तो ऐसा कहना हमारी ही मूर्खता हैं।  हम स्वयं ही उनकी सर्वव्यापकता, सर्वसमर्थता पर प्रश्नचिन्ह लगते हैं।  श्रीभगवान विरूद्धधर्माश्रय हैं।  यदि उनमें विरूद्धधर्माश्रय नहीं होगा तो वे पूर्णब्रह्म कैसे सिद्ध होंगे।  श्रीभगवान में देह जन्मादि विकार मानना ही असंगत हैं।  क्योंकि देहादि के विकार त्रैगुण्य के अंतर्गत हैं और ये त्रिगुण भगवान् के आधीन हैं। फिर जो विरूद्धधर्माश्रय की निष्पत्ति जो बताई हैं वह इस प्रकार हैं की वे -
 अणोरणीयान् महतो महीयान्। (कठ० 1/2/20)
‘वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और महान से भी महान है।’

आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः। (कठ० 1/2/21)
'बैठा हुआ ही दूर चला जाता है, सोता हुआ ही सब ओर चला जाता है।'


श्रीनिम्बार्काचार्य अपनी वेदान्त कामधेनु दशश्लोकि में नियंता तत्व को बताते हुए कहते हैं -
स्वभावतोSपास्त-समस्तदोष-मशेषकल्याणगुणैक-राशिम् । 
व्यूहांगिनं ब्रहृम परं वरेण्यं, ध्यायेम कृष्णं कमलेक्षणं हरिम् ।।


जो स्वभाव से ही समस्त  दोषों से रहित हैं और जो समस्त गुणों का पुंज हैं।
इस वाक्य से ही सिद्ध हैं कि वह परमब्रह्म स्वभावतः ही दोष रहित हैं, जिससे आत्मा का अपकर्ष हो वह दोष कहलाते हैं। पंचक्लेश, षड्विकार, प्राकृत सत-रज-तम आदि गुण तथा उन गुणों से अन्य अनंत दोष जो हैं, उनसे वह नियंता तत्व शुद्ध हैं।
यह जो  "निर्गुणं निष्क्रियं निर्मलं निरवद्यं निरञ्जनं"  उस अविनाशी तत्व के लिए कहा जाता हैं, इस वाक्य की सिद्धि भी उक्त वर्णन से ही होती हैं, परंब्रह्म को प्राकृत हेय गुणों से रहित होने के कारण "निर्गुण" कहा जाता हैं।  श्रुति कहती हैं -
"य आत्मापहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोको विजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसङ्कल्प: परः पराणां सकला न यत्र क्लेशादय: सन्ति परावरेशे" 

इसलिए जो नित्यों का भी नित्य हैं, चेतनों का भी चेतन हैं और अकेले ही सबकी कामनाओं को पूर्ण करता हैं उन देवताओं के भी परमदेव,स्वामियों के भी स्वामी, परात्पर भुवनों के ईश्वर, सबके उपासनीय परमात्मा को हम जानतें हैं। न तो उनका कोई कार्य हैं और न करण ही -
"नित्यो नित्यानां चेतनश्वेतनानामे को बहूनां यो विदधाति कामान्, तं देवतानां परमं च दैवतं,पतिं पतीनां परमं परस्ताद्‌विदाम देवं भुवनेशमीड्यम्‌, न तस्य कार्यं करणं च विद्यते।"

उस स्वभाव से ही समस्त दोषों से रहित, समस्त कल्याणादि गुणों की राशि, वासुदेव-संकर्षण-प्रद्युम्न-अनिरुद्ध नामक चतुर्व्यूह के अङ्गी परं ब्रह्म स्वरूप, कमल के समान नेत्रों वाले, सबके मन को हरण करने वाले वरेण्य श्रीकृष्ण का हम ध्यान करें।

श्रीकृष्ण का हम ध्यान करें जो हमारे मन का हरण करते हैं। हरण करना अर्थात आकर्षित करना।  हम आकर्षित उधर ही होते हैं जिसमें हमें आनंद प्राप्ति हो, रस प्राप्ति हो। श्रुति कहती हैं -
 "रसो वै सः। रसँ ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति"
अतः वह रस:स्वरुप आनंदस्वरूप परंब्रह्म जीव को नित्य अपनी ओर आकर्षित करता हैं, और वे परंब्रह्म हैं
"कृष्णस्तु भगवान् स्वयं"

#कृष्णं_सर्वेश्वरं_देवमस्माकं_कुलदैवतम्‌
क्रमश:

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