ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुवरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात ॥
उस प्राणस्वरूप,दुःखनाशक, सुखस्वरूप,श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक् देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें । वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे ।
'ओउम् मा प्र गाम थो वयं मा यज्ञान्द्रि सोमिन:। मान्त: सुर्नो अरातय:।'
अर्थात् 'हम ऐश्वर्य संपन्न होकर सन्मार्ग से दूर न जाएं। हे ऐश्वर्य प्रदाता, परोपकार से हम दूर न जाएं। दान न देने वाले हमारे बीच न ठहरे ।
यथार्थ के धरातल का हम हर क्षण अहसास करे, हमें हमारा विवेक व धैर्य ही सन्मार्ग की ओर ले जाएगा। क्योंकि---------------
''र्निन्दंतु नीति निपुण: यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मी समाविशतु
यदि वा यथैष्टम् न्यायापत् पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा:।''
अर्थात् 'कोई निंदा करे अथवा प्रशंसा, लक्ष्मी आए अथवा चली जाए, मृत्यु आज हो या युगों पश्चात्, न्याय के पथ पर चलने वाले कभी विचलित नहीं होते।'
यजुर्वेद में लिखा है-
''कुर्वन्नेवेहं कर्माणि जिजीविषेच्छत समा।''
अर्थात् सत्कर्म करता हुआ मनुष्य सौ वर्ष जीने की इच्छा करे।
वेदों में दीर्घायु की कामना की गई है, किंतु सत्कर्म करते हुए। और गाली देना सत्कर्म तो नहीं हो सकता ,किसी भी तरीके से नहीं हो सकता. सन्मार्ग पे चलना कभी भी किसीके प्रति दुर्भावना रखना नहीं हो सकता है ,चाहे फिर वह दुर्भावना इस सृस्ठी का का कोई भी प्राणी रखे.
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